संसार (WORLD)

जड़ और चेतन नामक दो वस्तुओं से गुण और दोषमय दो वृत्तियों से बनी चौरासी लाख योनियों द्वारा अपने गुण और कर्म से युक्त संस्कारों के अनुसार परमेश्वर के संकल्प से उत्पन्न एवं संचालित एक कर्म तथा भोग स्थल ही संसार है।
इस प्रकार संसार वह कर्म एवं भोग से युक्त स्थान है, जहाँ पर जीव अपने संस्कारों के आधार पर परमात्मा के निर्देशन में चौरासी लाख योनियों के माध्यम से विचरण करता है।

जड़ (MATTER)
जड़ से तात्पर्य पदार्थ (Matter) से होता है जो चेतनाहीन होता है, जो क्रमिक रूप से उत्पन्न होते हुये पाँच प्रकारों में जाकर स्थित हो गया है। जैसे – आकाश, वायु, अग्नि, जल तथा पृथ्वी ।
पदार्थ – ‘पदार्थ शक्ति का सघन रूप है।’ Matter is the deeply form of power.

(1) आकाश तत्त्व 

आकाश से तात्पर्य उस वस्तु विशेष से है जो मात्र शब्द से युक्त हो, साथ ही जो अन्य का सहारा लिए बिना सीधे शक्ति (चेतना) से उत्पन्न हुआ है।
गुण – राग-द्वेष, लज्जा, भय और मोह ये पाँच गुण आकाश तत्त्व के हैं।
शब्द – आकाश तथा आकाश से संबंधित वस्तुओं की जानकारी का एकमात्र विषय शब्द ही है। इस प्रकार शब्द आकाश तत्त्व का एकमात्र विषय है अर्थात आकाश तथा आकाश से युक्त वस्तुओं को शब्द के अलावा अन्य किसी भी विषय से जाना नहीं जा सकता है। चूंकि संसार की सभी वस्तुएँ आकाश से संबंधित होती हैं। संसार में ऐसी कोई वस्तु नहीं है जो आकाश तत्त्व से रहित हो। यही कारण है की किसी भी वस्तु की जानकारी में पहली कड़ी शब्द की ही होती है जो उस वस्तु का नाम है। अतः किसी भी वस्तु, व्यक्ति तथा शक्ति-सत्ता की, किसी भी जानकारी के लिए सर्वप्रथम शब्द का होना अत्यावश्यक है। चूँकि जड़ जगत की सारी वस्तुएँ (पदार्थ) पाँच भागो में ही विभाजित हैं । ऐसी कोई वस्तु नहीं जो इन पाँच (आकाश, वायु, तेज, जल, एवं पृथ्वी) विभागों से बाहर की हो । इन विभागों के अपने-अपने विषय अपनी-अपनी ज्ञानेन्द्रियाँ,अपनी-अपनी कर्मेन्द्रियाँ आदि होती है जो संक्षिप्ततः यहाँ रखी जा रही हैं –
कान:- आकाश तथा आकाश से सम्बंधित किसी भी वस्तु की जानकारी, जो मात्र शब्द द्वारा ही होती है, शरीर मे शब्दों को पकड़ने(जानने) के लिए जो अंग परमात्मा के निर्देशन मे प्रकृति द्वारा निर्मित (बना) है, वही अंग कान (कर्ण) (Ear) है। अर्थात शब्द को पकड़ने वाला अंग कान कहलाता है तथा उसके द्वारा शब्दो को पकड़ने तथा उस वस्तु, व्यक्ति व शक्ति-सत्ता के पहचान वाली क्रिया को तानना कहा जाता है ।
 सभी ज्ञानेन्द्रियों के सहायतार्थ शरीर में सभी के पास एक-एक सहायक इंद्रियाँ भी होती है जो कर्मेन्द्रियाँकहलाती हैं। इन कर्मेन्द्रियों का कार्य ज्ञानेन्द्रियों द्वारा दी गयी जानकारी के अनुसार कार्य करना मात्र ही होता है।
वाक् – वाक् एक कर्मेन्द्रिय है जिसे वाणी भी कहा जाता है। इसका एकमात्र कार्य कुछ न कुछ बोलना ही होता है। किसी वस्तु, व्यक्ति, शक्ति-सत्ता या स्थान की जानकारी तथा पहचान कराने में यह कर्णेन्द्रिय तक शब्दों को बोलकर पहुँचाने का कार्य करती है जिससे कि उन शब्दों को पकड़कर (सुनकर) कर्णेन्द्रिय अपनी जानकारी वाला अगला कार्य प्रारम्भ कर देती है। वाक् कान की सहायक इन्द्रिय अथवा कर्मेन्द्रिय है।

(2) वायु तत्त्व 

चेतन जब आकाश में क्रियाशील होता है तब चेतन और आकाश की संयुक्त क्रिया से जिस वस्तु की उत्पत्ति होती है, वह वायु (Air) है। वायु की उत्पत्ति चूंकि आकाश की सहायता से होती है इसलिए वायु में आकाश भी समाहित होता है, जिससे उस आकाश के गुण-दोष वायु में भी पाये जाते हैं परन्तु गौड़ रूप से, क्योंकि प्रधान रूप से वायु स्वयं होता है। अर्थात वायु वह वस्तु विशेष होती है जो शब्द तथा स्पर्श से युक्त होती है परन्तु रूप, रस तथा गन्ध से रहित रहते हुये शक्ति (चेतन) की गति से उत्पन्न हुई हो। जीवधारी द्वारा जीवन हेतु ली गयी वायु को ही प्राण वायु कहा जाता है।
गुण- दौड़ना, चलना, गाँठ पड़ना, संकोच और प्रसारण, ये पाँच गुण वायुतत्व के हैं।
स्पर्श – वायु तथा वायु से सम्बंधित वस्तुओं की जानकारी से सम्बंधित, विषय को स्पर्श कहते हैं। वायु में चूंकि आकाश भी समाहित होता है। इस प्रकार स्पर्श के साथ ही शब्द भी उसमें निहित रहता है। अतः वायु को हम स्पर्श तथा शब्द दोनों के माध्यम से ही जान सकते हैं। इन दोनों विषयों के अतिरिक्त अन्य किसी भी विषय से वायु को नहीं जाना जा सकता है।
त्वचा – वायु तथा वायु से सम्बंधित वस्तुओं की जानकारी व पहचान, जो स्पर्श तथा शब्द के माध्यम से होती है, को पकड़ने (अनुभव करने) हेतु बने शरीर के अंग को त्वचा कहते हैं। त्वचा ज्ञानेन्द्रियों में दूसरे स्थान पर आती है जिसका एकमात्र कार्य वायु को स्पर्श के माध्यम से अनुभव करना होता है।
पाणि – त्वचा रूपी ज्ञानेन्द्रिय के सहायक इन्द्रिय को पाणि (हस्त) कहा जाता है। त्वचा के इशारे पर ही उसी के सहायक के रूप में कार्य करने के कारण ही पाणि भी कर्मेन्द्रिय ही है। इसका कार्य वस्तुओं का लेना देना तथा त्वचा के इशारे पर पहुँचकर उसकी सहायता करना मात्र होता है।
वायु संसार की वह वस्तु है जो किसी भी जीवधारी के लिए आवश्यकता मात्र ही नहीं, अपितु जीवधारियों का जीवन ही उसके बिना असम्भव होता है। लगभग संसार के अन्तर्गत कोई ऐसा कार्य नहीं होगा जिसमें वायु का प्रयोग न होता हो। वायु की मर्यादा योगी-महात्मा आदि आध्यात्मिक व्यक्ति ही प्रधानतया स्वीकार करते हैं। शरीर के द्वारा ली गई वायु को ही प्राणवायु कहा जाता है, जिसको दस भागों- पाँच प्रधान (प्राण, अपान, समान, उदान, व्यान) तथा पाँच उप प्रधान (नाग, कुर्म, कृकर, देवदत्त और धनंजय) में विभक्त होकर कार्य करते हुये जाना (अनुभव) व देखा जाता है।
प्राण वायु – स्वांस द्वारा ली गई वायु जो हृदय में स्थित होकर शरीर संचालन का कार्य करती है वह प्राण वायु है। किसी भी वस्तु को शरीर के अन्दर पहुँचाने का कार्य प्राण वायु ही करती है। इसी वायु को वैज्ञानिक लोग आक्सीजन (O 2) कहते हैं, जो वैज्ञानिकों के अनुसार जीवधारियों में जीवन का एकमात्र आधार होता है। इसकी अनुपस्थिति में अथवा रुक जाने में जीवधारियों की जीवन प्रक्रिया ही रुक जाएगी।
अपान वायु– शरीर में गुदा स्थान में स्थित होकर शरीर से मल आदि विकारों को बाहर करने वाली वायु ही अपान वायु है।
समान वायु – शरीर में नाभि देश में स्थित होकर लिए गए भोज्य-पदार्थ अथवा पेय-पदार्थ से उत्पन्न शक्ति को शरीर के अन्तर्गत समस्त अंगों को उसके अनुसार समान रूप से पहुँचाने वाली वायु ही समान वायु है।
व्यान वायु – सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त रहते हुए शक्ति (ऊर्जा) को समस्त शरीर में व्याप्त करने का कार्य समान वायु के सहयोगी के रूप में कार्य करने वाली वायु ही व्यान वायु है।
उदान वायु – शरीर के अन्दर जीव अथवा अन्य वस्तुओं को उर्ध्व(ऊपर की ओर) ले जाने वाली वायु, जो कण्ठ में स्थित रहती है, उदान वायु है।
इन उपर्युक्त पाँच भागों में विभक्त होकर कार्य करने वाली वायु को प्रधान वायु कहा जाता है।
नाग वायु – शरीर से डकार के रूप में बाहर निकलने वाली वायु ही नाग वायु है।
कुर्म-वायु:- उन्मीलन अथवा उल्टी के रूप मे कार्य करने वाली वायु ही कुर्म वायु है।
कृकर वायु:- शरीर से छींक के रूप मे बाहर निकलने वाली वायु ही कृकर वायु है।
देवदत्त वायु:- जम्हाई के रूप मे ली जाने वाली वायु ही देवदत्त वायु है।
धनंजय-वायु:- यह वह वायु है जो शरीर मे सर्वव्यापी रहते हुए शरीर से इस प्रकार सम्बंधित रहती है की मृत्यु के पशचात भी यह शरीर को नहीं छोड़ती।
इस प्रकार यह पाँच प्रधान-वायु और पाँच नाड़ियों मे संजीवनी शक्ति का संचार करती रहती है। यदि शरीर के अंदर वायु का संचरण रूक जाय तो शरीर की सारी क्रिया-शीलता ही रूक जाएगी। अत: शरीर को संसार मे क्रियाशील रहने के लिए वायु का स्थान दूसरा होता है। क्योकि प्रथम स्थान पर तो पहले से ही आकाश तत्व कायम रहता है।
योगी-यति, ऋषि-महर्षि, साधक-सिद्ध आदि तत्वज्ञानी के अतिरिक्त साधना से युक्त समस्त महात्माओं की साधना का आधार जो अजपा-जप या अजपा गायत्री या प्राणायाम आदि की क्रिया वायु के सहारे ही की जाती है। यदि वायु की सहायता न ली जाय,तो योग-साधना की यह क्रिया जो प्रधानता के रूप मे कायम है, ही असम्भव हो जाएगी। अवतारी को छोड़कर सृष्टि मे सर्बोच्च स्थान पर स्थित शिव और शक्ति का भी संचरण (चलना) वायु से ही सम्भव होता है। जैसा कि स्वयं श्री महादेव जी ने अपनी यथार्थ स्थिति (नाम-रूप-स्थान) का परिचय कराते हुये पार्वती जी को स्पष्टतः समझाया है कि- ‘मैं’ हँस, सोsहं तथा ज्योति रूप में स्थित हूँ। श्वाँस लेते समय ‘स’ कार के रूप में शक्ति शरीर में प्रवेश करती है तथा ‘हँ’ कार के रूप में शिव शरीर से बाहर निकलते हैं। यही हँस, सोsहं तथा ज्योति मात्र ही शिव व शक्ति की यथार्थ स्थिति स्वयं श्री महादेव जी के श्री मुख से कही गयी वाणी है। प्रभाग में –
इडायां तू स्थितश्चंद्रः पिंगलायांश्च भास्कर। 

सुषुम्ना शम्भुरूपेण शम्भुहँस स्वरूपतः ॥ शि॰ स्व॰/50

इडा में चन्द्रमा और पिंगला में सूर्य की विद्यमानता है, सुषुम्ना शम्भु रूप में और हँस रूप में स्थित है।
हकारो निर्गमेप्रोक्तः सकारेण प्रवेशनम् । 

हकार शिव रूपेण सकार शक्तिरूप्यते ॥ शि॰ स्व॰/51

स्वास के निकलने में ‘हं’ और प्रविष्ट होने में ‘स’ कार होता है। ‘हं’ कार शिव रूप में और ‘स’ कार शक्ति रूप कहलाता है।
इस प्रकार उपर्युक्त प्रमाण से स्पष्ट हो जाता है कि शक्ति एवं शिव के संचरण का एकमात्र सहारा वायु ही होती है। शिव और शक्ति का वायु से सीधा सम्पर्क है।
अतः एक तरफ योगी-ऋषि, महर्षि आदि योग बल, तेज बल बढ़ाने में वायु के श्वांस-प्रश्वांस की प्रक्रिया को अत्यावश्यक बतलाया है तो दूसरी तरफ वैज्ञानिकगण भी शरीर को स्वस्थ रखने हेतु, शुद्ध रक्त हेतु आक्सीजन रूपी वायु को अत्यावश्यक बताते हैं। इस प्रकार उपर्युक्त बातों से स्पष्ट हो जाता है कि संसार एवं सांसारिक वस्तुओं और जीवधारियों के जीवन हेतु वायु एक अत्यावश्यक वस्तु है जिसके बिना किसी भी क्रिया-प्रक्रिया का होना असम्भव सा है। यदि शरीर में प्रवेश तथा निकास वाली वायु मात्र पर भी विजय पा ली जाय, तो विश्व की किसी भी गति-विधि पर विजय पाना आसान हो जाता है, वायु के सहारे शिव व शक्ति को भी अपने वश में किया जा सकता है परन्तु एक परमात्मा-खुदा-गॉड ही ऐसा है कि जो वायु से प्राप्त नहीं किया जा सकता। अन्यथा विश्व की समस्त वस्तु, व्यक्ति अथवा शक्ति-सत्ता को भी अपने अधीन किया जा सकता है। यहाँ तक कि भूत, वर्तमान एवं भविष्य के साथ ही साथ मौत की गति-विधियों को भी जाना जाता है। यह कोई अतिशयोक्ति नहीं अपितु यथार्थ बात है।

(3) अग्नि तत्त्व 

अग्नि या तेज तत्त्व- चेतन, आकाश तथा वायु की संयुक्त क्रियाशीलता से उत्पन्न वस्तु या पदार्थ ही अग्नि या तेज तत्त्व है। अग्नि तत्त्व की उत्पत्ति में प्रधानता वायु तत्त्व की होती है, यही कारण है कि अग्नि या तेज तत्त्व को वायु तत्त्व से उत्पन्न हुआ कहा जाता है, फिर भी आकाश तत्त्व का भी सहयोग होता है। चूंकि अग्नि तत्त्व में आकाश तथा वायु तत्त्व भी समाहित रहता है। इसलिए इस तेज तत्त्व को रूप के अलावा शब्द तथा स्पर्श से भी जाना जाता है, परन्तु इसकी जानकारी के लिए रूप की ही प्रधानता है, क्योंकि रूप इसका अपना विषय है। यही कारण है कि तेज की अनुपस्थिति में किसी भी वस्तु को हम देख नहीं सकते हैं क्योंकि देखने का माध्यम रूप और रूप का आधार तेज होता है।
गुण- भूख, प्यास, निद्रा, कान्ति और आलस्य ये पाँच गुण तेज के हैं।
रूप- तेज तथा तेज से सम्बंधित वस्तुओं की जानकारी कराने वाला विषय ही रूप है।
 किसी वस्तु, व्यक्ति अथवा शक्ति-सत्ता की जानकारी एवं पहचान हेतु शब्द (नाम) ही पूर्ण नहीं होता, अपितु शब्द (नाम) के पश्चात परन्तु साथ ही रूप का होना अत्यावश्यक होता है। जिस प्रकार शब्द के बिना वस्तु, व्यक्ति अथवा शक्ति-सत्ता आदि की जानकारी नहीं हो सकती। ठीक उसी प्रकार रूप के बिना वस्तु की पहचान नहीं हो सकती। अर्थात किसी वस्तु, व्यक्ति अथवा शक्ति-सत्ता की पहचान हेतु शब्द (नाम) तथा रूप दोनों की साथ-साथ ही उपस्थिति अनिवार्य है। “रूप, शब्द का अर्थवत् बोध मात्र ही होता है। अतः शब्द, रूप की जानकारी तथा रूप, शब्द का अर्थवत् बोध (पहचान) कराने वाली एक-दूसरे की अनिवार्य कड़ी है।” इस प्रकार संसार की किसी भी वस्तु, व्यक्ति अथवा शक्ति-सत्ता की जानकारी एवं पहचान हेतु शब्द (नाम) एवं रूप ये दोनों प्रधान ही नहीं अपितु अनिवार्य विषय है।
अतः तेज ही एकमात्र दिखाई देने वाली वस्तु या माध्यम अथवा शक्ति है। तेज के अलावा किसी भी अन्य वस्तु को न तो देखते हैं और न देख सकते हैं।
आँख (चक्षु) – तेज या तेज से सम्बंधित वस्तु, व्यक्ति अथवा शक्ति-सत्ता के यथार्थ पहचान हेतु उसके रूप को पकड़ने वाली ज्ञानेन्द्रिय ही चक्षु (आँख) है।
चूंकि तेज में आकाश तथा वायु भी समाहित होता है, जिसे शब्द तथा स्पर्श से जाना जाता है। इसलिए शब्द तथा स्पर्श को पकड़ने वाली ज्ञानेन्द्रियों जो कर्ण तथा त्वचा है, से भी जाना जा सकता है परन्तु यथार्थता की पहचान स्पष्टतः नहीं हो सकती है क्योंकि रूप ही तेज तत्त्व का प्रधान विषय है। इसलिए रूप और चक्षु ही यथार्थता की पहचान स्पष्टतः कराने में सक्षम है।
पाद (पैर) – किसी वस्तु, व्यक्ति अथवा शक्ति-सत्ता पहचान हेतु ज्ञानेन्द्रिय चक्षु के सहायतार्थ गन्तव्य स्थान (लक्ष्य) तक चक्षु को पहुँचाने वाली कर्मेन्द्रिय ही पाद (पैर) है। किसी भी वस्तु, व्यक्ति या शक्ति-सत्ता की जानकारी पहचान हेतु कर्ण तथा चक्षु को उसके पास पहुँचाना मात्र ही इसका प्रधान कार्य होता है।

(4) जल तत्त्व

चेतन, आकाश, वायु तथा तेज द्वारा संयुक्त रूप से क्रियाशील होने से उत्पन्न एक द्रव विशेष ही जल है। दो भाग हाइड्रोजन तथा एक भाग आक्सीजन के मेल से उत्पन्न द्रव पदार्थ जल(H २O ) है।
गुण – शुक्र, रक्त, मज्जा, मूत्र, लार ये पाँच जल तत्त्व के गुण हैं। शरीर संचालन हेतु वायु के समान ही रक्त की भी आवश्यकता होती है और रक्त जल के बिना उत्पन्न नहीं हो सकता। यही कारण है कि संचालन में जलतत्त्व की भी एक विशेष भूमिका होती है।
रस - जल तथा जल से युक्त वस्तु की यथार्थतः पहचान करने वाले विषय को रस कहते हैं।
 यह बात भी सत्य है कि आकाश, वायु, तथा तेज इन तीनों सूक्ष्म व स्थूल पदार्थों के मेल से उत्पन्न चौथा पदार्थ जल (H २O ) है। इसी कारण यह भी सत्य है कि तीनों सूक्ष्म व स्थूल पदार्थों के गुण व विषय भी जल पदार्थ में समाहित हों अर्थात् जल की जानकारी शब्द, स्पर्श, रूप आदि के माध्यम से भी इनकी अपनी ज्ञानेंद्रियों द्वारा हो सकती है परन्तु स्पष्टतः पहचान रस से ही होगी क्योंकि रस जल मात्र का ही अपना विशेष विषय है।
अतः “जलतत्त्व की यथार्थतः पहचान कराने वाला विषय मात्र ही रस है।
रसना (जीभ)- जल तथा जल से युक्त पदार्थ की यथार्थ जानकारी तथा पहचान कराने वाले रस को पकड़ने वाली ज्ञानेन्द्रिय ही रसना है। चूंकि जल में आकाश, वायु तथा तेज तत्त्व भी समाहित रहता है क्योंकि एक के बिना दूसरे का अस्तित्व ही नहीं उत्पन्न होता, इसलिए इन उपर्युक्त तीनों पदार्थों के गुण व विषय का होना स्वाभाविक ही है। इसलिए जल को हम शब्द, स्पर्श रूप के माध्यम से कर्ण, त्वचा, चक्षु के द्वारा भी जान सकते। अतः रस व रसना ही जल का अपना विषय व ज्ञानेन्द्रिय है जिसके माध्यम से ही जल की यथार्थता की जानकारी व पहचान होती है अन्य से नहीं।
लिंग- यह वह इन्द्रिय है जो जल के माध्यम से शरीर की गंदगी को साफ करते हुये गंदगी से युक्त जल (शुक्र, मूत्र आदि) को बाहर कर देती है। इसीलिए इसे कर्मेन्द्रिय कहते हैं। यह (लिंग) जल तथा जल से युक्त पदार्थों के त्याग के द्वारा अपने प्रधान ज्ञानेन्द्रिय रसना को जल की शुद्धता-अशुद्धता के ज्ञान तथा ग्रहण करने में सहयोग प्रदान करता है। चूंकि लिंग का अभीष्ट देवता प्रजापति होता है, इसलिए यह शुक्र के त्याग द्वारा प्रजाओं की उत्पत्ति में भी एक मात्र सहयोगी का कार्य करता है जो सामान्य स्थिति में इसके बिना असम्भव होता है।

(5) पृथ्वी तत्त्व 
“चेतन, आकाश, वायु, तेज, जल द्वारा संयुक्त रूप से क्रियाशील होने से उत्पन्न ठोस पदार्थ ही पृथ्वी तत्त्व है।”
पृथ्वी वह पदार्थ है जो उपर्युक्त चारों पदार्थों तथा उन चारों की संयुक्त क्रियाशीलता से उत्पन्न पाँचवाँ पदार्थ जो ठोस रूप में ही हो, साथ ही जिसमें सभी विषय शब्द, स्पर्श, रूप, रस, एवं गन्ध से युक्त हो तथा जिसकी जानकारी में भी समस्त इंद्रियाँ सहयोगी हों, वही पदार्थ पृथ्वी तत्त्व है।
गुण- शरीर में अस्थि, मांस, त्वचा, नाड़ी और रोम ये पाँच गुण पृथ्वी तत्त्व के हैं।
गन्ध- पृथ्वी तथा पृथ्वी से संबंधित विषयों की यथार्थ जानकारी एवं पहचान कराने वाला विषय ही गन्ध है। हालांकि जानकारी के सभी विषय- शब्द, स्पर्श, रूप एवं रस भी गन्ध में समाहित होते हैं फिर भी गन्ध के बिना पृथ्वी तत्त्व की जानकारी व पहचान पूर्ण नहीं मानी जा सकती क्योंकि इसका अपना विशेष विषय गन्ध ही है। इसलिए जब तक गन्ध की स्वीकारोक्ति नहीं होती, तब तक पृथ्वी तत्त्व को उसकी मान्यता नहीं मिल सकती।
नाक- पृथ्वी तथा पृथ्वी से संबंधित वस्तुओं की जानकारी और पहचान कराने वाले विषय (गन्ध) को पकड़ने वाली (जानकारी कराने वाली) इन्द्रिय ही नाक है। यह इन्द्रिय मात्र जानकारी करने-कराने का ही कार्य करती है। इसीलिए इसे ज्ञानेन्द्रिय कहते हैं। ज्ञानेन्द्रियों में नाक का अन्तिम एवं पाँचवाँ स्थान है।
नाक गन्ध लेने के अतिरिक्त एक ऐसा कार्य भी करती है जो शरीर के लिए सबसे महत्वपूर्ण कार्य होता है, वह कार्य है स्वास लेना व छोड़ना। स्वास-प्रस्वास वह क्रिया है जिसके माध्यम से शक्ति (प्राण-शक्ति) शरीर में प्रवेश करती व बाहर आती-जाती रहती है। जिससे समस्त प्राणियों का जीवन कायम रहता है, यह स्वांस-प्रस्वांस की क्रिया नाक से ही होती रहती है जिसको योगी, ऋषि-महर्षि आदि साधना के माध्यम से स्वांस-प्रस्वांस से प्रवेश व निकास वाली शक्ति को अनुभव के द्वारा पकड़ते हैं, जो अजपा-जप या अजपा गायत्री रूप हँसो, सोsहं है तथा वैज्ञानिकगण उसी प्राण वायु को मात्र बाह्य जानकारी के आधार पर आक्सीजन (O २) और कार्बन डाई आक्साइड (C O २) बताते हैं। परन्तु दोनों आध्यात्मिक और वैज्ञानिक ही एक स्वर से यह स्वीकार करते हैं की जीवनी-शक्ति (जीवन) हेतु शरीर में स्वांस-प्रस्वांस की क्रिया सबसे अधिक महत्वपूर्ण क्रिया है जो नाक द्वारा होती है।
अतः समस्त ज्ञानेन्द्रियों में नाक का अन्तिम व पाँचवाँ स्थान होने के बावजूद भी अपना एक विशिष्ट एवं महत्वपूर्ण स्थान है। जिसके कारण महत्व एवं श्रेणी में रखने पर नाक समस्त ज्ञानेन्द्रियों में अन्तिम होने के बावजूद भी प्रथम स्थान पर है। इसे प्रथम कहा जाय या अन्तिम अथवा अन्तिम कहा जाय या प्रथम दोनों ही उपयुक्त हैं।
गुदा- गुदा वह कर्मेन्द्रिय है जिसका पृथ्वी तथा पृथ्वी तत्त्व से सम्बंधित वस्तुओं से सार रहित तथा विकार से युक्त पदार्थ (मल) को शरीर से बाहर करना होता है जिससे कि उस रिक्त स्थान की पूर्ति हेतु सार युक्त पदार्थ पुनः पहुँचकर अपना कार्य करता रहे।

-------- सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस






Total Viewers

Contact

पुरुषोत्तम धाम आश्रम
पुरुषोत्तम नगर, सिद्धौर, बाराबंकी, उत्तर प्रदेश
फोन न. - 9415584228, 9634482845
Email - bhagwadavatari@gmail.com
brajonline@gmail.com