गुण और दोष (Merit and Demerit)


गुण (Merit) – किसी वस्तु या शक्ति विशेष की लक्ष्य प्राप्ति की अनुकूलता से युक्त विशेषता ही गुण है।
दोष (Demerit)- किसी वस्तु या शक्ति विशेष की लक्ष्य प्राप्ति की प्रतिकूलता से युक्त विशेषता ही गुण है।
सत्त्व गुण- पूर्णतः सत्यमय बनाने अथवा सत्य को प्राप्त कराने वाला विचार, कार्य एवं भोग आदि सत्त्व गुण है।
रजो गुण- सत्यासत्यमय बनाने अथवा सत्यासत्य संयुक्त रूप को प्राप्त कराने वाले विचार, कार्य एवं भोग आदि ही रजो गुण हैं।
तमो गुण- असत्यमय बनाने अथवा सत्य से हटाकर घोर पतन को प्राप्त कराने वाला विचार, कार्य एवं भोग आदि तमोगुण हैं।
इस प्रकार सत्त्वगुण, रजोगुण एवं तमोगुण- इन तीनों गुणों की उत्पत्ति त्रिगुणमयी माया जो मूल प्रकृति या महामाया भी है, से ही होती है। जड़ और चेतन रूप दो पदार्थों की उत्पत्ति तो सीधे परमात्मा जो कर्ता, भर्ता, हर्ता है, से होती है परन्तु इन तीनों गुणों की उत्पत्ति परमात्मा के संकल्प से उत्पन्न आदिशक्ति या मूल प्रकृति या महामाया जो एकमात्र परमात्मा की अर्द्धांगिनी रूप है, उसी परमात्मा की अध्यक्षता एवं निर्देशन में सृष्टि की उत्पत्ति, रक्षा व्यवस्था एवं संहार करती व कराती है। उत्पत्तिकर्ता (सृष्टि के) ब्रह्मा जी, सृष्टि के व्यवस्थापक श्री विष्णु जी एवं सृष्टि के संहारक शंकर जी, इन तीनों की उत्पत्ति एवं क्रिया-कलाप इसी आदि-शक्ति के निर्देशन में होता है। इस प्रकार परमात्मा एवं ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि के बीच यह आदि शक्ति दोनों वर्गों के प्रतिनिधि के रूप में कार्य करती है। श्री कृष्ण जी की वाणी गीता में-
मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम् ।
हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते ॥
हे अर्जुन ! मुझ अधिष्ठाता के सकाश से अथवा मेरी अध्यक्षता एवं निर्देशन में ये मेरी माया चराचर (जड़-चेतन) सहित सब जगत को रचती है और इस उपर्युक्त कारण से ही यह संसार आवागमन के चक्र में घूमता है।
मायां तु प्रकृतिम् विद्यान्मायिनं तु महेश्वरम् ।
तस्यावयवभूतैस्तु व्याप्तं सर्वमिदं जगत् ॥
 (श्वेता॰ 4/10)
इस प्रकरण में जो माया के नाम से वर्णन हुआ है वह तो भगवान की शक्तिरूपा प्रकृति है और उस माया नाम से काही जाने वाली शक्तिरूपा प्रकृति का अधिपति (स्वामी) परमब्रह्म परमात्मा महेश्वर है। इस प्रकार इन दोनों को अलग-अलग समझना चाहिए। उस परमेश्वर की शक्तिरूपा प्रकृति के ही अंग कारण-कार्य समुदाय से यह सम्पूर्ण जगत् व्याप्त हो रहा है।
अतः उपर्युक्त प्रकरण से यह स्पष्ट हो रहा है कि परमात्मा की अध्यक्षता एवं निर्देशन में रहते हुये त्रिगुणमयी महामाया ही चराचर (जड़-चेतन) से युक्त संसार को उपर्युक्त तीनों गुणों के माध्यम से ही आवागमन चक्र के रूप में उत्पत्ति, रक्षा-व्यवस्था व संहार करती-कराती है। इस प्रकार यह सत्त्वगुण ही यथार्थतः गुणी व्यक्ति द्वारा ग्रहण किया जाता है। इस सत्त्व गुण वाले देवता, रजोगुण वाले मानव और तमोगुण वाले दानव कहलाते हैं। इस प्रकार प्रकृति या माया से उत्पन्न तीन गुण ही इस अविनाशी जीवात्मा (हंसो, सोsहं तथा ज्योति) को शरीर में बांधते हैं।
प्रकाश वाला सत्त्वगुण निर्विकारी एवं निर्मल होने के कारण सुख के साथ से और ज्ञान के साथ (मिथ्याज्ञान के साथ) से भी बांधता है, रागरूप वाले रजोगुण की उत्पत्ति कामना और आसक्ति से होती है और कर्म तथा उसके फल की आसक्ति से बांधता है और सर्वदेहाभिमानियों को मोहने वाला तमोगुण अज्ञान से उत्पन्न होता है। वह जीवात्मा को प्रमाद, आलस्य और निद्रा द्वारा बांधता है; जैसा कि गीता कहती है।
अतः इस अविनाशी जीवात्मा को सत्त्वगुण सुख में लगाता है, रजोगुण कर्म में लगाता है और तमोगुण तो ज्ञान को आच्छादित कर प्रमाद में ही लगाता है। किसी में तो सत्त्वगुण प्रभावी होकर शेष दोनों गुणों (रजोगुण तथा तमोगुण) को दबा देता है तो किसी में रजोगुण प्रभावी होकर शेष दोनों गुणों (सत्त्वगुण तथा तमोगुण) को दबा देता है और किसी में तमोगुण प्रभावी होकर शेष दोनों गुणों (सत्त्वगुण तथा रजोगुण) को दबा देता है।
प्रत्येक व्यक्ति के अंदर अधिक या कम मात्रा में तीनों ही गुण रहते हैं परन्तु विशेषता यह है कि कब किसकी प्रधानता रहती है। जिसकी प्रधानता में यह जीवात्मा शरीर छोड़कर बाहर निकलती है, उसी मति के अनुसार ही इसकी गति होती है। यदि सत्त्वगुण की अवस्था में जीवात्मा शरीर छोड़ती है तो देवयोनि, रजोगुण की अवस्था में अन्य योनि तथा तमोगुण की अवस्था में कीट-पतंग कूकर-सूकर आदि अधम योनि में स्थान पाती है।
अब प्रश्न यह उठता है कि कैसे समझा जाय कि कब किस गुण की प्रधानता कायम है ? इसका जबाब यह है कि शरीर या अन्तःकारण में और इन्द्रियों में भी जिस काल में चेतनता और बोध शक्ति उत्पन्न होती है, उसी काल में सत्त्वगुण की प्रधानता समझनी चाहिए और लोभ प्रवृति अर्थात सांसारिक चेष्टा तथा सब प्रकार के कर्मों का स्वार्थपरता से आरम्भ एवं अशान्ति अर्थात मन की चंचलता और विषय भोगों की लालसा आदि उत्पन्न हो, तब रजोगुण की प्रधानता होती है और जब अन्तःकारण इन्द्रियों में अज्ञान एवं कर्तव्य कर्मों में अप्रवृत्ति और प्रमाद अर्थात व्यर्थ चेष्टा और निद्रा आदि अन्तःकारण की मोहिनी वृत्तियाँ आदि उत्पन्न होने लगें तब यह जान लेना चाहिए कि तमोगुण प्रधान हो गया है। इस प्रकार तीनों गुणों की पहचान की जाती है।
महामाया के उपर्युक्त तीन गुणों (सत्त्व, रज, तम) से परे होना या परमप्रभु को पाना, यह जीवात्मा के वश बात नहीं है क्योंकि महामाया इस जीवात्मा से भी बहुत बलवती होती है। इसलिए जब तक परमप्रभु की कृपा नहीं होती, तब तक मुक्ति नहीं हो सकती माया के बन्धन से।
-------- सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस

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