हिरण्य गर्भ से गर्भ स्थित शरीर तक

सृष्टि रचना पाँच स्थूल तत्त्वों से होने के कारण उन पाँच पदार्थ-तत्त्वों को जानने-देखने-समझने और पहचान कर सम्बन्ध स्थापित करने के लिए पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ तथा इन पाँच ज्ञानेन्द्रियों के सहयोगार्थ पाँच कर्मेन्द्रियाँ भी इस मानव शरीर में नियत की गई हैं। ताकि मानव यथार्थ जानकारी तथा उसी के अनुसार यथोचित कार्य करते हुये तथा भोग-भोगते हुये अपने गन्तव्य स्थान को प्राप्त करे। दूसरे शब्दों में जिन पाँच तत्त्वों से मानव शरीर की रचना होती है, उन पाँच तत्त्वों के अपने-अपने विषय, जो तत्त्वों में ही सूक्ष्म रूप में निहित रहते हैं, शरीर के अन्तर्गत अपने-अपने लिए स्थान सुरक्षित कर लेते हैं, जिसके द्वारा शरीर बाहय स्थित पाँच तत्त्वों से निर्मित वस्तु रूप संसार से सुविधा पूर्वक सम्बन्ध स्थापित कर सके। यह सुरक्षित स्थान ही इन्द्रियाँ कहलाईं। ये इंद्रियाँ दो प्रकार की ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों के रूप में रहते हुये भी दोनों आपस में सम्बंधित होती हैं।
ज्ञानेन्द्रियों एवं कर्मेन्द्रियों की उत्पत्ति और उनके कार्य
आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी – पाँच प्रकार के पदार्थ-तत्त्वों से ही सृष्टि रूप विराट शरीर तथा शरीर रूप स्वराट शरीर की रचना होती है। जो ब्रह्माण्ड और पिण्ड नामों से भी सुना व जाना जाता है। जिसके द्वारा इन पाँच पदार्थ-तत्त्वों की जानकारी और पहचान होती है, वही सूक्ष्म-तत्त्व अथवा विषय है। विषयों के माध्यम से पदार्थ-तत्त्वों तथा उससे उत्पन्न वस्तुओं को जानने और पहचानने हेतु गर्भ स्थित हिरण्य में जिन अंगों की रचना हुई, वही उस विषय की ज्ञानेन्द्रिय कहलाई। दूसरे शब्दों में पाँच पदार्थ-तत्त्वों जिससे स्वराट एवं विराट शरीरों की रचना होती है, पाँचों का अपना-अपना विषय होता है, जिसके द्वारा स्वराट शरीर और विराट शरीर सम्बंधित होते हैं। चूँकि स्वराट शरीर, विराट शरीर की एक इकाई मात्र होती है और विराट शरीर ऐसे असंख्य इकाइयों का संयुक्त रूप होता है, इसलिए स्वराट शरीर के अन्तर्गत कमियों की पूर्ति हेतु विराट शरीर द्वारा विषयों के माध्यम से सम्बन्ध कायम रखने हेतु गर्भ स्थित ‘हिरण्य’ में जिन-जिन विषयों के लिए जो-जो स्थान नियत हुये, उसमें से ‘ज्ञान’ (जानकारी और पहचान करने) सम्बन्धी स्थानों को ज्ञानेन्द्रिय और कर्म करने वाले स्थान या अंगों को कर्मेन्द्रिय कहा गया। पाँचों पदार्थ-तत्त्वों हेतु पाँच ज्ञानेन्द्रियों तथा पाँच कर्मेन्द्रियों की रचना हुई।
पाँच पदार्थ-तत्त्व जिस क्रम से विराट शरीर रूप सृष्टि में उत्पन्न हुये थे, ठीक उसी क्रम में उसी गुण-स्वभाव से स्वराट-शरीर रूप मानव शरीर वाले ‘हिरण्य’ में भी उत्पन्न हुआ, जिससे कि बिना किसी व्यवधान के स्वराट और विराट शरीरों में निहित पाँचों तत्त्व आसानी से मिल एवं व्यवहरित हो सकें। सर्वप्रथम आकाश-तत्त्व की उत्पत्ति हुई जिसका सूक्ष्म रूप या विषय ‘शब्द’ है। आकाश को जानने हेतु शब्द को जानना जरूरी है। अर्थात् शब्द के बगैर आकाश तत्त्व को हम जान ही नहीं सकते हैं क्योंकि यह मात्र एक गुण स्वभाव वाला होता है और वह गुण-स्वभाव ‘शब्द’ ही है। हालांकि राग, द्वेष, लज्जा, भय और मोह आदि ये पाँच गुण इसी आकाश तत्त्व से ही सम्बंधित हैं। ये आकाश तत्त्व के विषय नहीं हैं। विषय तो ‘शब्द’ है। यही कारण है कि ‘हिरण्य-गर्भ’ में सर्वप्रथम कान की रचना हुई, जिसके माध्यम से विराट शरीर के अन्तर्गत विशालकाय रूप में स्थित आकाश तत्त्व से सम्बन्ध कायम रहे, उसके बाद इसी क्रम से वायु तत्त्व से सम्बन्ध हेतु स्पर्श के लिए त्वचा की उत्पत्ति हुई, फिर अग्नि-तत्त्व से सम्बन्ध रखने हेतु ‘रूप’ को देखने के लिए ‘चक्षु’ (आँख) की उत्पत्ति हुई, फिर जल-तत्त्व से सम्बन्ध हेतु जल-तत्त्व के विषय ‘रस’ को परखने के लिए ‘रसना’ (जिह्वा) की उत्पत्ति हुई और अन्त में पृथ्वी-तत्त्व से सम्बन्ध कायम रखने के लिए पृथ्वी-तत्त्व के विषय गन्ध को समझने हेतु नाक की उत्पत्ति हुई।
शरीर-तन्त्र एक अति जटिल रचना है। इस साढ़े तीन हाथ के शरीर के अन्तर्गत ही अनन्त सृष्टि या ब्रह्माण्ड की समस्त वस्तुएं, यन्त्र आदि, जो कुछ भी है, प्रतीकात्मक रूप में नियत किए गए हैं। तारे, सूर्य, चन्द्रमा, आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, गृह, देवता आदि जितनी भी वस्तुएं हैं, सब के सब ही प्रतीकात्मक रूप में प्रत्येक शरीर के अन्तर्गत ही नियत हुए हैं।
शरीर-तन्त्र और सृष्टि-तन्त्र दोनों की उत्पत्ति या रचना एक समान वस्तुओं और पद्धतियों से ही होती है। वह वस्तु या पदार्थ ‘जड़’ और ‘चेतन’ तथा वह पद्धति ‘गुण’ और ‘दोष’ है। इन्ही जड़ और चेतन रूपी दो वस्तुओं तथा गुण और दोष रूपी दो पद्धतियों से ही शरीर-तन्त्र तथा सृष्टि-तन्त्र की भी उत्पत्ति या रचना होती है। यही कारण है कि योगी-जन भ्रमवश स्वराट शरीर को ही विराट शरीर मान व घोषित करते हुये कायम कर देते हैं।
ज्ञानेन्द्रियों का कार्य, सृष्टि के अन्तर्गत निहित पाँच पदार्थ-तत्त्वों तथा उनसे निर्मित वस्तुओं कि यथार्थ जानकारी और पहचान कर उसका प्रतिवेदन (Report) जीवात्मा को सुपुर्द करते रहना है। जिसके आधार पर जीवात्मा मन अथवा बुद्धि को, जिसके क्षेत्र से सम्बंधित प्रतिवेदन (रिपोर्ट) होता है, उसको क्रियान्वयन हेतु सुपुर्द करती है, उसके बाद जिसको सुपुर्द होता है वह मन या बुद्धि कर्मेन्द्रियों के माध्यम से प्रतिवेदन (रिपोर्ट) तथा जीवात्मा के निर्देशन अनुसार कार्य करवाता है। इस प्रकार कार्यों के क्रियान्वयन हेतु मन और बुद्धि के साधन रूप में जिन अंगों की रचना हुई, उन्हे ही कर्मेन्द्रियाँ कहा जाता है। ये कर्मेन्द्रियाँ भी पाँच ही होती हैं। इस प्रकार ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों की संयुक्त रूप में बनी आकृति ही शरीर है। अब देखते हैं कि गर्भ स्थित ‘हिरण्य’ में ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों की उत्पत्ति हो जाने के बाद वह हिरण्य ही मानव शरीर के रूप में परिवर्तित हो जाता है। इस प्रकार हिरण्य से शरीर रूप में परिवर्तित होने में कुल तीन माह के करीब समय लगता है। अब देखना यह है कि गर्भ स्थित शरीर शेष छः महीने बिना अन्न व जल के किस प्रकार कायम रहता है ? कौन उसकी रक्षा करता है ?
गर्भ स्थित ‘शरीर’ की व्यवस्था – गर्भ-स्थित शरीर-रचना जब पूरी हो जाती है, तब आश्चर्यमय बात तो यह है कि उस शरीर को हवा, पानी, अन्न आदि कौन देता है ? कैसे देता है ? शेष छः महीनों को शरीर किस प्रकार व्यतीत करता है ? आदि –
चूँकि जीव, जीवात्मा तथा आत्मा और परमात्मा सम्बन्धी गुहय, अतिगुहय तथा परमगुहय विषयों सम्बन्धी यथार्थ जानकारी, शोध प्रबन्ध आदि जितनी यथार्थता और स्पष्टता के साथ भारतीय ऋषि-महर्षि और सन्त-महात्माओं आदि ने समाज को दिया है जिसे परमात्मा वाले अवतारियों ने पुष्टि भी की और हमेशा-हमेशा परमेश्वर की यथार्थ जानकारी सम्बन्धी ‘तत्त्वज्ञान-पद्धति’ जो समाज में सैद्धांतिक, प्रायोगिक और व्यावहारिक रूप में समाज के बीच दिया, वह संसार के अन्तर्गत अन्य किसी भी देश में अब तक उपलब्ध नहीं हो पाई। यही कारण है कि संस्कृति भारत की और सभ्यता पाश्चात्य देखों की मानी गयी। नीति भारत की और नियम पाश्चात्य देशों के प्रभावी रहे, शान्ति और आनन्द भारत के और सुख-साधन पाश्चात्य देशों के प्रभावी रहे। शान्ति और आनन्द की उपलब्धि विश्व को भारत से ही हुई है और भविष्य में भी होगी क्योंकि परमेश्वर का पूर्णावतार हमेशा भारत भूमि में ही हुआ है तथा वर्तमान में भी भारत में ही हुआ है। इसका एकमात्र कारण यह है कि परमेश्वर ‘संस्कृति-प्रधान’ होता है, सभ्यता-प्रधान नहीं। प्रस्तुत उपर्युक्त प्रकरण यहाँ इसलिए आ गया कि किसी भी प्रकार का गुहय, अतिगुहय तथा परमगुहय शोध-प्रबन्ध संसार के बीच फैला है, तो वह भारत से ही फैला है और पुनः भारत से ही फैलेगा। इसीलिए गर्भ स्थित सन्तान (शरीर) के विषय में हम जो कुछ भी बताने जा रहे हैं, यह संस्कृति-प्रधान रहते हुये अकाट्य वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित है। फिर भी संस्कृति-प्रधान कुछ ऐसे शब्द भी प्रयुक्त हो सकते हैं, जो सर्वविदित न हों परन्तु यथार्थतः भाव-प्रधान होने के नाते हम यहाँ पर प्रयुक्त कर रहे हैं। हालाँकि इन शब्दों को मात्र भाव-प्रधान ही नहीं अपितु यथार्थतः वैज्ञानिक तथ्य से युक्त ही कहा जाएगा क्योंकि इसके अन्तर्गत परम सत्यता का भाव छिपा है।
नार-पुरइन अथवा एरिअर – नार-पुरइन कमल-नाल और कमल-पत्ता ‘पुरइन-पात’ जैसी ही गर्भस्थ-शरीर के नाभि-कमल स्थित एक नाड़ी होती है। यह रेडियो, टेलीविजन सेट, रैकेट, रडार आदि यन्त्रों के अन्तर्गत ‘एरिअर’ जैसी ही होती है, दूसरे शब्दों में यह परम आकाश रूप परमधाम रूप शक्ति और आत्म सत्ता-सामर्थ्य प्रेषण-केन्द्र (Power and Soul supply station) से शक्ति और आत्म-सत्ता-सामर्थ्य को ग्रहण करने हेतु एरियर रूप नाड़ी ही नार-पुरइन है। जिस प्रकार रेडियो, टेलीविजन सेट, रैकेट, राडार आदि में एरियर जो कार्य करता है, ठीक वही कार्य गर्भस्थ-शरीर के नाभि-कमल स्थित नार-पुरइन भी करती है। नाभि-कमल स्थित नार-पुरइन का एक मात्र कार्य ‘आत्म-ज्योति’ रूप ‘शब्द-शक्ति’ या ‘आत्म-शक्ति-सत्ता-सामर्थ्य’ को पकड़ना और कुण्डलिनी-शक्ति को सुपुर्द करना होता है। नार-पुरइन का एकमात्र कार्य ‘शक्ति और आत्म-सत्ता-सामर्थ्य प्रेषण केन्द्र से ‘आत्म-ज्योति’ या शब्द-शक्ति या ब्रह्म-शक्ति या शिव-शक्ति या दिव्य-ज्योति या नूरे-इलाही या अलिमे-नूर या आसमानी-रोशनी या डिवाइन-लाइट अथवा ब्रह्म-तेज को पकड़कर कुण्डलिनी के अन्तर्गत स्थित ‘अहम्’ शब्द रूप जीव से सम्बंधित करना या कराना होता है। दूसरे शब्दों में ब्रह्म से जीव का सम्बन्ध स्थापित कराने वाले ब्रह्म-नाल का एकमात्र कार्य ‘अहम्’ शब्द रूप जीव को ‘सः’ शब्द रूप आत्म-ज्योति से जोड़ना होता है।

कोsहं और सोsहं
कोsहं और सोsहं – गर्भस्थ शिशु शरीर की रचना जब पूरी हो जाती है और उसमें ‘अहम्’ रूप जीव प्राण-प्रतिष्ठापन होता है, तब तुरन्त ही उस गर्भस्थ शिशु के अन्तर्गत यह प्रश्न रूप आवाज होने लगती है की कोsहं, कोsहं, कोsहं, ----? इस प्रकार की आवाज जिसका अर्थ यह हुआ कि मैं कौन ? मैं कौन ? मैं कौन ? ..... इस प्रकार की आवाज निकालते हुए जब शिशु काफी परेशान हुआ, तब जबाब यानी उत्तर में शिशु को एक दिव्य-ज्योति दिखलाई दी, जो ‘सः’ ‘शब्द’ से युक्त थी। पुनः देखा कि वह ‘सः’ शब्द शिशु के अन्दर प्रवेश किया करता है और ‘वही’ ‘सः’ शब्द शरीर में प्रवेश कर ‘अहम्’ शब्द में परिवर्तित हो जाता है, जो ‘अहम्’ शरीर के अन्तर्गत कायम रहता है। पुनः ‘सः’ प्रवेश करता रहता है और ‘अहम्’ के रूप में बाहर निकलता रहता है। चूँकि पहले ‘सः’ प्रवेश करता है और ‘अहम्’ बाद में निकलता है, इसलिए दोनों का जब मिलन होता है, तब ‘सः + अहम्’ = ‘सोsहं’ शब्द रूप ले लेता है। इस प्रकार गर्भस्थ शिशु गर्भ के अन्तर्गत ‘सोsहं’ शब्द से युक्त रहता है।
‘सोsहं’ का अजपा-जाप रूप स्वांस-प्रस्वांस की प्रक्रिया के अन्तर्गत यह शक्ति शरीर के अन्दर प्रवेश कर बिना किसी बाह्य वस्तुओं की सहायता के समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति करती रहती है।
अमृत-पान – प्रत्येक व्यक्ति के शरीर में जिह्वा-मूल के ऊपर एक कण्ठ-कूप होता है। इस कूप को अमृत-कूप भी कहते हैं। गर्भस्थ शिशु की जिह्वा, जिह्वा-मूल से ही ऊपर उठकर उसी कण्ठ-कूप में पड़ी रहती है और शिशु अमृत-पान करता रहता है। बाहय व्यवहार से सिमटकर इंद्रियाँ अन्तरमुखी होकर ध्यान के अन्दर रहते हुये जिह्वा को खींचकर जिह्वा-मूल से ऊपर कण्ठ-कूप में स्थिर करने वाली पद्धति ही खेंचरी मुद्रा या अमृत-पान कहलाता है, जो गर्भस्थ शिशु का स्वतः ही होता रहता है।
अमृत-पान वह विधि है जिससे युक्त और सिद्ध होने वाला साधक भूख, प्यास, सर्दी, गर्मी, मूर्छा, जहर आदि-आदि को जीतकर बिना भोजन किए ही हष्ट-पुष्ट एवं तेज से युक्त हो जाता है। योग-साधना के अन्तर्गत यह मुद्रा सबसे अधिक प्रभावी मानी जाती है। इस मुद्रा के लिए कितने-कितने वर्षों तक लगातार अभ्यास करने पर भी बहुत कम लोगों की सिद्ध हो पाती है, जबकि गर्भस्थ शिशु इसी मुद्रा में पड़ा रहता है। यही कारण है कि गर्भस्थ शिशु को भूख, प्यास आदि नहीं सताती और बिना बाहय खाद तथा पेय पदार्थ के ही शिशु स्वतः ही स्वस्थ रहता है।
ध्यान-मुद्रा – ध्यान-मुद्रा वह मुद्रा होती है जिसके अन्तर्गत दृष्टि बहिर्मुखी न होकर अंतर्मुखी होकर उर्ध्वमुखी रूप में आज्ञा-चक्र में टिकायी जाती है। यही दिव्य-दृष्टि तथा तीसरी दृष्टि भी है, जिससे युक्त रहने के कारण शंकर जी त्रिनेत्र भी कहलाते हैं। आत्म-ज्योति का साक्षात्कार इसी ध्यान-मुद्रा अथवा दिव्य-दृष्टि से ही होता है।
गर्भस्थ शिशु ध्यान मुद्रा में रहते हुये सदा-सर्वदा ज्योतिर्मय रहता है। आत्म-ज्योति से युक्त होकर चिदानंदमय पड़ा रहता है। यही कारण है कि शिशु उर्ध्वमुखी रहते हुये आँखें बन्द किए रहता है, जिसके अन्तर्गत जीव ज्योतिर्मय ‘आत्मा’ या ब्रह्म से युक्त होकर पड़ा रहता है। यह ‘आत्म-ज्योति’ परमधाम में वास करने वाले परमात्मा से छिटककर भ्रू-मध्य स्थित आज्ञा-चक्र में आती है, जहाँ पर जीव, अजपा-जाप की क्रिया के माध्यम से पहुँचकर ‘सः’ रूप आत्म-ज्योति का साक्षात्कार करते हुये चिदानंदमय स्थिति में कायम रहता है। गर्भस्थ शिशु इसी मुद्रा में पड़ा रहता है।
अनहद्-नाद – आत्म-ज्योति के अन्तर्गत होती रहने वाली दिव्य-ध्वनि को श्रवण करने वाली क्रिया प्रक्रिया ही अनहद्-नाद है। यह क्रिया-प्रक्रिया सदा-सर्वदा निरन्तर धुन के रूप में असीम (कितने प्रकार की ध्वनि इसमें निहित रहती है अब तक निश्चित नहीं हो सका है। ) रूप में होता रहता है अर्थात यह सीमा से रहित होता है, इसीलिए इसे अनहद्-नाद कहा जाता है। यह दिव्य-ध्वनि दिव्य-आनन्द से युक्त होती है, जिसे योगी लोग कानों को बन्द कर-कर के सुना करते हैं, परन्तु गर्भस्थ शिशु अनहद्-नाद मुद्रा में दिव्य-ध्वनि को सुनते हुये दिव्य-आनन्द में मस्त पड़ा रहता है।

ब्रह्मा, विष्णु और शंकर जी का दायित्व 
आदि-शक्ति जो कि परमब्रह्म परमेश्वर के निर्देशन में सृष्टि उत्पत्ति, पालन-पोषण और लय करती रहती है, ने अपने सहयोगार्थ तीनों देवों, ब्रह्मा, विष्णु, शंकर को उत्पन्न करके एक-एक विभाग की रचना की। उत्पत्ति-विभाग ब्रह्मा जी को, पालन-पोषण विभाग अथवा रक्षा विभाग विष्णु जी को और संहार अथवा विनाश विभाग शंकर जी को सुपुर्द कर स्वयं परमेश्वर की सेवा में लगी रहती है।
मानव शरीर की व्यवस्था तीन भागों में बंटी होती है। गर्भस्थ-शिशु की रक्षा विभाग – ब्रह्मा जी; जन्म से गृहस्थ व्यक्ति की रक्षा-व्यवस्था विभाग – श्री विष्णु जी; और त्यागी-सन्यासी की रक्षा-व्यवस्था विभाग श्री शंकर जी के जिम्मे होता है।

गर्भस्थ-शिशु और ब्रह्मा जी का दायित्व
‘अक्षय-बिन्दु’ से ‘हिरण्य’ रूप होते हुये गर्भस्थ शिशु रूप में परिवर्तित होता है। इस अक्षय-बिन्दु से गर्भस्थ-शिशु तक के बीच जो कुछ भी क्रिया कलाप तथा रक्षा-व्यवस्था करनी पड़ती है, सब दायित्व ब्रह्मा जी पर होता है। नाभि-कमल अथवा मणिपूरक-चक्र ब्रह्मा जी का वास स्थान होता है और गर्भस्थ शिशु का क्षेत्र गर्भाशय होता है, जो ब्रह्मा जी के क्षेत्राधिकार में आता है। ब्रह्मा जी की शरीर रचना प्रक्रिया जैसे ही पूर्ण होती है, वैसे ही, बल्कि कुछ पूर्व से ही श्री विष्णु जी की रक्षा-व्यवस्था सम्बन्धी अपनी प्रक्रिया प्रारम्भ कर देते हैं।


गृहस्थ-व्यक्ति और श्री विष्णु जी का दायित्व 
नाभि-कमल स्थित ब्रह्मा जी गर्भस्थ शिशु के शरीर की रचना का कार्य जैसे ही पूरा करते हैं, उसके कुछ पूर्व से ही उस शिशु की रक्षा-व्यवस्था की प्रक्रिया प्रारम्भ करते हुये श्री विष्णु जी अपने क्षेत्राधिकार रूप हृदय क्षेत्र या अनाहत-चक्र में क्षीर-सागर से माता के स्तनों में दूध (क्षीर) की व्यवस्था करते हैं, ताकि शिशु जन्म से अन्नाहार के योग्य होने तक के लिए स्वस्थता के साथ कायम रह सके। इस लक्ष्य की पूर्ति तक कम से कम अथवा अधिक से अधिक जीतने भी दूध की यथार्थतः आवश्यकता पड़ती है, उतने ही दूध की व्यवस्था होती रहती है और जैसे ही शिशु अन्नाहार करने लगते हैं, दूध की मात्रा वैसे ही कम होने लगती है और जब शिशु शैशव अवस्था में पहुँच जाता है और आसानी से अन्न सेवन करने लगता है, वैसे ही दूध स्तनों में आना बन्द हो जाता है परन्तु अपवाद स्वरूप आगे-पीछे या कम-अधिक हो सकता है, जिसका सामान्य विधानों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।


वानप्रस्थ-त्यागी एवं सन्यासी और महेश का दायित्व
गृहस्थ जीवन में जब व्यक्ति कर्म करते और भोग-भोगते हुये चारों तरफ आनन्द शून्य और शान्ति रहित रहते हुए सांसारिक जीवन से ऊब जाता है और किसी भी कर्म और भोग में कल्याण तो दिखलायी देता नहीं, इसीलिए कर्म और भोग के प्रति वैराग्य उत्पन्न होने लगता है, जिससे व्यक्ति कर्म और भोग को त्यागने हेतु उत्प्रेरित होने लगता है। कल्याण, आनन्द और शान्ति रहित जीवन कोई जीवन नहीं। ऐसा जीवन तो पशु-पक्षियों, कीट-पतंगों आदि का होता है, मानव का नहीं। खाना, सोना, भय-भीत रहना और बच्चे पैदा करना आदि तो सभी जीवों को सभी योनियों में होता रहता है, परन्तु ‘सत्य-ज्ञान’ अथवा ‘सत्य-धर्म’ मात्र मनुष्य योनि में ही मिल सकता है, अन्य किसी योनि में नहीं।

वानप्रस्थी जीवन वह जीवन होता है जिसमें गृहस्थ जीवन में रहते हुये भी त्याग भाव को प्रधानता देते हुये सन्यास का अभ्यास करते रहा जाय। दूसरे शब्दों में गृहस्थ जीवन व्यतीत करते हुये परमेश्वर की उत्कट जिज्ञासा के साथ खोज करते रहना, साथ ही त्याग प्रधान भाव के साथ ही श्रद्धापूर्वक सन्त-महात्माओं की सेवा करते हुये गृहस्थ से सन्यास तक पहुँचने का प्रयत्न करते हुये सन्यास के पूर्व का जीवन ही वानप्रस्थ जीवन है। हालाँकि त्यागी शब्द तो गृहस्थ जीवन के त्याग के बाद ही लागू होता है, परन्तु गृहस्थ जीवन में कर्म करते हुये भी परमात्मा के प्रति श्रद्धापूर्वक पूर्ण समर्पण भाव में रहते हुये सन्त-महात्माओं की सेवा गृहस्थों से महत्वपूर्ण समझते हुये परमात्मा को जान-पहचान कर अपने परमकल्याण और परमशान्ति को प्राप्त होने के लिए अपने सर्वस्व के त्याग का भाव प्रधान रहते हुये कर्म करने में भी त्याग ही है। अर्थात् गृहस्थ और सन्यास के मध्य का जीवन ही वानप्रस्थ जीवन है और गृहस्थ जीवन का पूर्णतः त्याग और उत्कट जिज्ञासा पूर्वक परमात्मा की तलाश करते रहना और जो भी सन्त-महात्मा मिले, तब तक उसकी सेवा और भगवान की खोज श्रद्धा और समर्पण भाव के साथ जारी रखा जाय, जब तक कि परमात्मा की जानकारी और पहचान न हो जाय। परमात्मा की जानकारी और पहचान होते ही सदा-सर्वदा के लिए पूर्ण श्रद्धा और समर्पण के साथ उनके आश्रित रहते हुये उन्ही की शरण में पूर्णतः अपने तन-मन-धन को समर्पित कर देना चाहिए। यही कर्म, त्याग, सन्यास अथवा जीवन की चरम और परम उपलब्धि है।

त्यागी और सन्यासी की रक्षा-व्यवस्था का भार शंकर जी पर होता है। यह जीवन साधना और कल्याण प्रधान होना चाहिए, तभी दायित्व शंकर जी का होगा अन्यथा आडम्बरी-त्यागी और सन्यासी का नहीं। ज्ञानी का सारा भार भगवान पर होता है।
ब्रह्मा जी ब्रह्म तेज अथवा आत्म-ज्योति के माध्यम से रक्षा व्यवस्था कराते हैं जबकि श्री विष्णु जी लक्ष्मी द्वारा सम्पत्ति के माध्यम से रक्षा-व्यवस्था कराते हैं और शंकर जी त्याग और साधना द्वारा तप और शिव-शक्ति के तेज द्वारा व्यवस्था कराते हैं।
देखने योग्य और आश्चर्य की बात तो यह है कि जिन चार क्रियाओं को गर्भस्थ शिशु करता था, उन्ही की नकल ‘सौर-गृह’ या ‘प्रसूति-गृह’ में प्रसव के समय की जाती है। नाजानकारी के कारण अज्ञानता के रूप में वही चार क्रियाएँ प्रधानता के साथ शादी-विवाह में भ्रम-पूर्ण तरीके से करायी जाती हैं। वही चार क्रियाएँ जड़ता वश मृतक के साथ भी की जाती है। इतना ही नहीं, गलत धारणा के कारण मन्दिर में पूजा आरती के समय भी वही चार क्रियाएँ प्रधानता के साथ पुजारी जी करते कराते हैं तथा अन्त में वही चार क्रियाएँ जो गर्भस्थ शिशु गर्भ में करता रहता था, जिससे नाना भ्रम जालों में फँसकर, भटक कर वंचित हो गया था, आध्यात्मिक महात्मागण उन्ही चार क्रियाओं को राज-योग कहकर जनाते-सिखाते व कराते रहते हैं, परन्तु ये भी लक्ष्य तक नहीं पहुँच पाते हैं। अंततः सबका पर्दाफास तो तब होता है, जब सबका कर्ता, भर्ता, हर्ता रूप परमेश्वर का परमधाम से भू-मण्डल पर अवतरण होता है और उन्ही के द्वारा जब सब बातों की यथार्थ जानकारी दी जाती है। अब हम सभी बन्धुगण अलग-अलग इन उपर्युक्त बातों को जाने-देखें और समझते हुये सत्यता को धारण करें।

सऊर गृह अथवा प्रसूति गृह 
शिशु का जिस गृह में जन्म होता है, उस गृह को सऊर अथवा प्रसूति-गृह कहा जाता है। अब आइये हम लोग देखें भारतीय संस्कृति की पद्धति से सऊर अथवा प्रसूति गृह के अन्दर क्या-क्या होता है ? क्यो होता है ? प्रसव के पूर्व प्रसव पीड़ा से युक्त महिला को जब प्रसव हेतु किसी कोठरी (घर) में ले जाया जाता है, उस समय उस प्रसव-पीड़ा से युक्त महिला को प्रसव पीड़ा कम होने अथवा अन्य तौर-तरीके से सहयोग प्रदान करने हेतु कुछ (दो-चार) अनुभवी महिलाएँ जो घर या पास-पड़ोस की ही काफी नजदीक रहने वाली होती हैं, रहती हैं और तब तक रहती हैं, जब तक कि शिशु की पैदाइश होकर उसकी देख-रेख हेतु प्रसव-सेविका अथवा प्रसव का कार्य करने वाली ‘चमइन’ (हरिजन महिला) नहीं आ जाती। जैसे ही ‘चमइन’ प्रसूति-गृह में प्रवेश करती है, वैसे ही शिशु और उसकी माँ को छोड़कर शेष सभी महिलाएँ, भले ही उसी के घर की हों, फिर भी उस प्रसूति-गृह से बाहर आ जाती हैं। अब प्रश्न यह उठता है कि ‘चमइन’ ही क्यों बुलाई जाती है ? और शेष सभी महिलाएँ उस कोठरी से बाहर क्यों हो जाती हैं ? यह प्रश्न अति महत्व का है परन्तु ध्यान दिया जाय तब समझ में आएगा।

‘चमइन’ ही प्रसव-सेविका क्यों होती है ?
ऐसा सुना व देखा भी जाता है कि गर्भस्थ शिशु जैसे ही गर्भ से बाहर आता है, वैसे ही ‘चमइन’ को बुलावा चला जाता है, क्योंकि ‘नार-पुरइन’ अथवा ‘ब्रह्म-नाल’ काटना होता है, जो ‘चमइन’ ही काटती है। अन्य महिलाएँ नहीं। ऐसा क्यों होता है ? इसका मूल कारण यह है कि ‘नार-पुरइन’ अथवा ब्रह्म-नाल वह नाड़ी है, जिसके माध्यम से जीव, ब्रह्म का साक्षात्कार करता हुआ ‘ब्रह्ममय’ होकर मस्त पड़ा रहता है जिसके कारण उसे दुनिया की कोई वस्तु नहीं चाहिए। दूसरे शब्दों में गर्भस्थ शिशु जब बाहर आता है, तब उसके नाभि-कमल में एक नार-पुरइन’ अथवा ब्रह्म-नाल होती है जिसकी यह विशेषता होती है कि जब तक वह नार-पुरइन शिशु के नाभि में कायम रहती है, तब तक शिशु के अन्तर्गत रहने वाला जीव उस नार-पुरइन के माध्यम से ब्रह्म का साक्षात्कार करता हुआ ब्रह्ममय होकर कायम रहता है। जब तक वह नार-पुरइन कटेगा नहीं, तब तक जीव का ब्रह्म से सम्बन्ध हटेगा या छूटेगा नहीं और जब तक जीव का ब्रह्म से सम्बन्ध छूटेगा नहीं तब तक माता-पिता, भाई-बहन आदि संसार से सम्बन्ध जुड़ेगा नहीं। अर्थात् संसार से सम्बन्ध जोड़ने हेतु जीव का ब्रह्म से सम्बन्ध तोड़ना पड़ता है और ब्रह्म से सम्बन्ध जोड़ने हेतु संसार का सम्बन्ध छोड़ना पड़ता है। उदाहरण के लिए श्री शुकदेव जी और कबीर दास जी को देखें।


‘नार-पुरइन’ काटना संसार का घोर घृणित कार्य –
‘नार-पुरइन’ जिसका एकमात्र कार्य जीव का ब्रह्म से सम्बन्ध जोड़े रहना ही होता है, जिसके परिणाम स्वरूप जीव को बाहरी दुनिया की किसी भी वस्तु की आवश्यकता नहीं पड़ती है। ब्रह्म साक्षात्कार और ब्रह्ममय होकर रहने में। अमृतपान करना और दिव्य-ध्वनि (अनहद्-नाद) श्रवण करना तथा ब्रह्म-ज्योति को देखते हुये मस्त पड़े रहना होता है। ऐसे दिव्यानन्द को प्राप्त कराने वाली नार-पुरइन को काटना, ऐसा निकृष्ट, पतित, अधम एवं घोर घृणित कर्म कोई और हो ही नहीं सकता है। यही कारण है कि निकृष्ट महिला ‘चमइन’ के अलावा और कोई महिला इतना बड़ा पतित और घोर घृणित कार्य कर ही नहीं सकती। इसीलिए इस घोर-घृणित कार्य हेतु चमइन ही बुलाई जाती थी और संस्कृति फरक समाज में बुलाई जाती है।


नार-पुरइन या ब्रह्म-नाल काटने का परिणाम –
‘नार-पुरइन’ काटने हेतु प्रसव-सेविका जैसे ही सऊर गृह या प्रसूति-गृह में प्रवेश करती है तो जनित शिशु तथा शिशु की माता के पास सेवार्थ अथवा सहयोगार्थ बैठी घर या पड़ोस की महिलाएँ तुरन्त प्रसूति गृह से निकल कर बाहर हो जाती हैं कि अब चमइन नार-पुरइन काटने जा रही है। सभी लोग बाहर हो जाओ, नहीं तो छूया जाओगे। तो बात क्या है कि अब तक छूत की बात नहीं थी और अब छूत की बात होने लगी ? इसकी खोज करने पर यह दिखाई देने लगेगा कि जब तक नार-पुरइन नहीं कटी थी, तब तक तो कोई छुआ-छूत की बात नहीं थी, परन्तु जैसे ही नार-पुरइन काटने की बात आई है, छुआ-छूत की बात और बात ही नहीं, कार्य रूप में भी दिखाई देने लगी । पहले-पहल तो चमइन वैसे ही समाज में अछूत और निकृष्ट महिलाओं में आती है। दूसरे जैसे ही नार-पुरइन काट देती है, वैसे ही और घोर अछूत हो जाती है क्योंकि जैसा कर्म किया उसका परिणाम भी तो वैसा ही होता है। नार-पुरइन काटने का अर्थ है जीव का ब्रह्म से सम्बन्ध काटना। तो यह विचारणीय बात है कि सृष्टि में ब्रह्म का जीव से सम्बन्ध काटने जैसा घृणित काम दूसरा कोई हो सकता है ? कभी नहीं। यह घोर-पतित कार्य होता है। अगर चमइन इस रहस्य को जानती तो शायद वह कभी इस काम को नहीं करती। हालाँकि नार-पुरइन को काटने का परिणाम तो वह सिर्फ देखती ही नहीं, बल्कि भुगतती भी है। एक तो वह पहले से ही अछूत होती है, लेकिन इतनी अछूत नहीं कि कोई देह न छुआ सके। परन्तु जैसे ही नार-पुरइन को काटती है तो उसका परिणाम यह मिलता है कि वह घोर-पतित और अछूत हो जाती है जिससे अब कोई और ही नहीं बल्कि उसी के परिवार के लोग अपना शरीर नहीं छुआते हैं। इतना ही नहीं, वह जिधर से कटा हुआ नार-पुरइन लेकर गुजरती है, तो उसके पैर से छू जाने के कारण वह धरती भी दूषित या अपवित्र हो जाती है। अब उस धरती पर चलने के लिए पानी से पहले धोना या पवित्र करना पड़ता है। बात यह इसीलिए महत्वहीन हो गई कि इस पर कोई विचार नहीं करता है कि ऐसा क्यों हो जाता है ? यदि शोध किया जाय तो एकमात्र यही जबाब मिलेगा कि ब्रह्म-नाल काटना घोर-घृणित कार्य है। और जो इस कार्य को करता है, वह भी घोर-घृणित हो जाता है। यही कारण है कि चमइन नार-पुरइन काटकर चमइनों की चमइन बन जाती है। वह स्नान करने के पूर्व तक अपने परिवार के लिए भी अछूत एवं घृणित रूप में रहती है। यह परिणाम होता है जीव का ब्रह्म से सम्बन्ध काटने वाले का। अब हम लोग देखेंगे कि कटवाने वाले पर इसका क्या प्रभाव पड़ता है ?


स्वार्थी माता-पिता पर नार-पुरइन कटवाने का फल 
गर्भस्थ शिशु जब जन्म लेता है तब माता-पिता के पूर्व निर्देशन में नार-पुरइन काटने के लिए चमइन को बुलाया जाता है। चमइन आकर नार-पुरइन काटती है जिसका परिणाम पिछले प्रकरण में बताया जा चुका है। यदि समाज के सामने मजबूरी न होती तो उस चमइन को पुनः स्वीकार नहीं करता। उत्पन्न शिशु का यदि नार-पुरइन नहीं काटा जाता है, तो वह शिशु सदा-सर्वदा दिव्यानन्द में मस्त रहता, उसको दुनिया की किसी भी वस्तु की आवश्यकता नहीं पड़ती और वह किसी भी सांसारिक समस्या में नहीं उलझता। यदि इधर-उधर से भटक कर कोई समस्या आ भी जाती तो उसका समाधान भी उसके साथ ही अनुगामी के रूप में आ जाता। उसके लिए परेशान होने की जरूरत कदापि नहीं होती। नार-पुरइन काटे बिना शिशु को गृहस्थ जीवन या सांसारिक कदापि नहीं बनाया जा सकता है। यदि उसकी शादी-विवाह भी एक नहीं एक हजार कर दिया जाय और सन्तान भी उत्पन्न होती रहें, फिर भी उस व्यक्ति पर इसका कोई कुप्रभाव नहीं पड़ सकता है, यदि उसका नार-पुरइन न काटा गया हो। उसकी वृत्ति सदा-सर्वदा ही ब्रह्ममय बनी रहेगी। वह अपने को न तो किसी माता-पिता से उत्पन्न माँ सकता है और न अपने द्वारा उत्पन्न सन्तानों को अपनी सन्तान ही मान सकता है। वह न तो अपने को किसी का पुत्र, भाई, पति, पिता या गृहस्थ मान सकता है और न किसी वस्तु को अपना मान सकता है। उसके लिए तो सारी सृष्टि ब्रह्ममय दिखलाई देती है। उससे संसार में किसी भी प्रकार की गलती, भूल या भ्रम नहीं हो सकता है। वह सदा ही निर्विकारी, निर्लेप और निर्दोष के रूप में संसार में अनासक्त रूप में इधर-उधर सर्वत्र भ्रमण करता रहता है। यह कैसी दुनिया है कि ऐसे दिव्यानन्द वाली पद्धति को समाप्त कर मात्र थोड़े से स्वार्थ हेतु कि हम माता-पिता कहलाएँ, हम भाई-बहन कहलाएँ, हमारा मकान हो, हमारी दुकान हो, हमारी संपत्ति हो आदि आदि चक्कर में फँस कर सुख लोभी नाना तरह की कमियों, समस्याओं और दुःखों को झेलते रहते हैं, लेकिन फिर भी किसी सन्त-महात्मा के यहाँ जाकर पुनः ब्रह्म से सम्बन्ध स्थापित कर दिव्यानन्द तथा अवतारी की शरण में जाकर सच्चिदानन्द रूप वाले मुक्त-पुरुष का जीवन व्यतीत नहीं करते हैं और संसार चक्र में फँसकर बर्बाद हो जाते हैं। आदि में सृष्टि रचना करनी थी, संसार कायम करना था। इसलिए प्रजापतियों के ब्रह्म-नाल को कटवा-कटवा कर सांसारिक बना-बना कर संतानोत्पत्ति कराते थे, क्योंकि उनको मात्र यही एक कार्य सौपा गया था, इसलिए वे ऐसा करते थे परन्तु आज जब इतनी सघन आबादी से युक्त संसार हो गया है कि भ्रूण-हत्या करना भी पुरस्कृत कार्य हो गया है। फिर भी लोग सांसरिकता को छोड़कर ब्रहमानन्द होने से घबराते हैं। जबकि आज कि सांसारिकता दुःख, परेशानियों और समस्याओं का पिटारा के अलावा कुछ भी नहीं रह गयी है, फिर भी आदमी इसी में इतना जकड़ा हुआ है कि निकालने पर भी निकलना ही नहीं चाहता है। वह प्रजापतियों और ऋषियों द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों और कार्यों को संस्कृति और परम्परा के रूप में स्वीकार करते हुए अन्धानुकरण करने में लगा हुआ है। अपने सुधार व उद्धार की तरफ थोड़ा भी विचार नहीं कर रहा है। मानों कि अब इन लोगों को हमेशा के लिए यहीं रहना है, शरीर छोड़कर जाना ही नहीं है।


माता भी अछूत एवं घृणित
जनित शिशु का नार-पुरइन चमइन द्वारा जैसे ही काटा जाता है, वैसे ही वह चमइन तो घोर-घृणित हो ही जाती है साथ ही नार-पुरइन कटवाने वाली माता भी अछूत एवं घृणित हो जाती है। उसी माता से उत्पन्न अन्य सन्तानें भी उनसे शरीर नहीं छुआती हैं। उनके पतिदेव भी उनसे शरीर नहीं छुआते हैं। इतना ही नहीं अपने परिवार का भी कोई सदस्य उस महिला (माता) से शरीर छुआना तो दूर रहा, यदि उस प्रसूति गृह में भी कोई भूल वश प्रवेश कर गया, तो दरवाजे से ही मना कर दिया जाता है और अगर प्रवेश कर भी गए तो उन्हे भी अपवित्र घोषित कर दिया जाता है और उनको स्नान आदि करके शुद्ध होना पड़ता है। समाज कितना जड़ी हो गया है कि इतने प्रभावकारी क्रिया कलाप के बावजूद भी यह जाँच-पड़ताल नहीं करता कि आखिर बात क्या हो जाती है कि इतनी बड़ी घृणा, अपवित्रता, छुआछूत का भाव कि माता अछूत, वह घर अछूत, वह शिशु अछूत, वह थाली अछूत जिसमें वह खाती है, वह वस्त्र अछूत जो वह पहनती है, अंततः वह परिवार ही अन्य परिवारों के लिए अछूत हो जाता है। आखिर बात क्या है ? जबकि ये सारी घटनाएँ नार-पुरइन या ब्रह्म-नाल के काटने के बाद ही प्रारम्भ होती हैं, जबकि पहले ऐसी कोई बात नहीं थी। अतः यह दिखलायी देता है कि नार-पुरइन काटकर जीव का ब्रह्म से सम्बन्ध काटना ही एकमात्र इन सभी घटनाओं का कारण है। चूँकि सामाजिक और पारिवारिक व्यवस्था के बिगड़ जाने का भय होता है, इसलिए एक सप्ताह तक ही छुआछूत वाला भाव माना जाता है और स्नान आदि कर-करा के सामाजिक और पारिवारिक व्यवस्था को कायम रखने हेतु उस व्यवहार को समाप्त कर दिया जाता है। अब यह देखना है कि नार-पुरइन काटने का परिणाम शिशु पर क्या पड़ता है और वह उसे किस प्रकार झेलता है ?

नार-पुरइन या ब्रह्म-नाल कटने का शिशु पर कुप्रभाव 
शिशु जब उत्पन्न होता है या गर्भ से बाहर आता है, तो देखा जाता है कि आँखें बन्द रहती हैं, जिह्वा मुख में सामान्य तरीके से रहने के बजाय जिह्वा मूल से ही ऊपर के कण्ठ-कूप में उर्ध्व रूप में पड़ी रहती है, कानों में एक विचित्र तरह का ध्वनि अवरोधक पदार्थ जो ‘जावड़’ कहलाता है, भरा रहता है जिससे बाहरी शब्दों और ध्वनियों का शिशु पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। इसकी महत्ता गृहस्थों को तो पता नहीं होती, इसकी महत्ता को जानना हो तो किसी भी योगी या आध्यात्मिक महात्मा से या किसी धार्मिक महापुरुष के उपदेशों से, जो वेद, पुराण, रामायण, गीता, बाइबिल, कुरान आदि सद्ग्रंथों में भरे पड़े हैं, जान-देख तथा समझ लेना चाहिए क्योंकि किसी भी बात या वस्तु का यथार्थ लाभ लेने अथवा महत्ता से लाभान्वित होने हेतु यह अति आवश्यक होता है कि उस बात या वस्तु की यथार्थता को जाना और समझा जाय। 
आँखें बन्द क्यों रहती हैं ?
जिह्वा उल्टी क्यों रहती है ?
कान बन्द क्यों रहते हैं ?
शिशु पैदाइश के समय रोता क्यों है ?
जब ‘हम’ रोते हैं, तो दुनिया हँसती है और जब हम हँसते हैं तो दुनिया रोती है। ऐसा क्यों होता है ? आदि आदि। 
उपर्युक्त बातें तथा क्रियाएँ मनमानी अथवा थोथी दलील नहीं है। यथार्थतः विचित्र रहस्यात्मक प्राकृतिक विधान है, जिसकी यथार्थतः जानकारी जो हासिल कर पाते हैं वे ही इसके चिदानन्द या दिव्यानन्द को जान-समझ, अनुभव एवं बोध कर पाते हैं, सभी नहीं।


शिशु की आँखें बन्द क्यों रहती हैं ?
शिशु जब गर्भ से बाहर आता है, तो देखा जाता है कि उसकी आँखें बन्द रहती हैं। परन्तु इस पर कोई विचार नहीं करता कि ऐसा क्यों होता है ? जब किसी क्रिया पर विचार होता है तभी उसकी महत्ता समझ में आती है, अन्यथा नहीं। 
जब शिशु गर्भ में था और नार-पुरइन से युक्त था, तब वह ध्यान-मुद्रा में आत्म-ज्योति का दर्शन करता रहता था, जो दिव्यानन्द से युक्त था, जिसकी अनुभूति में शिशु मस्त पड़ा रहता है, जिसको बाहय दृश्य दर्शन की आवश्यकता ही नहीं पड़ती है। उसी ध्यान मुद्रा में ही शिशु की पैदाइश होती है, जिसके कारण आँखें बन्द रहती हैं और नार-पुरइन जब कटवा दी जाती है तब आत्म-ज्योति से सम्बन्ध कट जाता है, तब शिशु को परेशानी न हो या कष्ट न हो अथवा जीव उस ज्योति की खोज में शरीर छोड़कर न चला जाय, इसीलिए प्रसूति-गृह में शिशु की उत्पत्ति से पूर्व ही ‘दीप’ जला दिया जाता है और ऐसी व्यवस्था कर दी जाती है कि ‘दीप’ बुझने न पाये।


ब्रह्म-ज्योति का पाखण्ड रूप दीप-ज्योति –
शिशु जब पैदा होता है, उसके पूर्व से ही प्रसूति गृह में दीप जला कर रख दिया जाता है और कहा जाता है कि दीप बुझना नहीं चाहिए नहीं तो यमदूत शिशु को छू देंगे या यमदूत शिशु को लेकर चले जायेंगे। परन्तु बात की असलियत तो कुछ और ही रहती है। हालाँकि प्रभाव लगभग एक समान ही है कि जीव जो ब्रह्म-ज्योति का साक्षात्कार करता हुआ दिव्यानन्द में मस्त था, वहीं अब नार-पुरइन कट जाने से ब्रह्म-ज्योति का दर्शन होना तो बन्द हो जाता है, तब शिशु का जीव आत्म-ज्योति की तलाश में शरीर छोड़कर न चला जाय या विक्षिप्त न हो जाय, इसी को यमदूत का ले जाना या छूना कहा जाता है। यही कारण है कि दीप जलाकर शिशु को भरमाया जाता है कि ऐ शिशु ! मत घबराओ, जिस आत्म-ज्योति को देखते थे, देखो ! यह दीप-ज्योति वही ब्रह्म-ज्योति है ! इतना बड़ा पाखण्ड, धोखा, छल एवं फंसाहट शिशु के जीव के साथ सांसारिक माता-पिता या पारिवारिक लोग आदि करते हैं और फंसाकर अपना स्वार्थ साधते हैं और जब कोई सन्त-महात्मा फँसे हुये व्यक्ति का पुनः ब्रह्म-ज्योति से सम्बन्ध जोड़ कर पारिवारिक, सामाजिक आदि बन्धन से मुक्त करते हैं तो ये स्वार्थी लोग, सन्त-महात्मा को ही ढोंगी, पाखण्डी, आडम्बरी आदि कहकर बदनाम करते हैं और फँसे हुये लोगों को उनके पास पहुँचने से सब प्रयत्नों से एक होकर मना करते हैं और लोग नहीं मानते हैं, तब संतों से विरोध, यहाँ तक कि संघर्ष भी कर बैठते हैं।


शिशु की जिह्वा उल्टी क्यों रहती है ?
गर्भस्थ शिशु जब गर्भ में रहता है तो उसका सम्बन्ध ब्रह्म-ज्योति रूप ब्रह्म से रहता है और जब पैदा होता है, तब भी नार-पुरइन के माध्यम से ब्रह्म-ज्योति से सम्बन्ध कायम रहता है, जिसके कारण शिशु की जिह्वा, जिह्वा मूल से ही ऊर्ध्वमुखी होकर कण्ठ-कूप में प्रवेश कर ‘अमृत-पान’ करती रहती है। यही कारण है कि शिशु की जिह्वा उल्टी रहती है।
जब शिशु का नार-पुरइन काट दिया जाता है, उसी समय ब्रह्म-ज्योति से उसका सम्बन्ध टूट जाता है, जिसके कारण जिह्वा को मुख में अंगुली डालकर कण्ठ-कूप से बाहर नीचे लाकर मुख में सामान्य रूप में कर दिया जाता है और कहा जाता है कि मुख के अन्दर कण्ठ से ‘लेझा’ निकाला गया है। यह उन लोगों को कौन समझाये कि ‘लेझा’ नहीं निकाला गया, बल्कि शिशु जो अमृत-पान कर रहा था, उसका उससे सम्बन्ध छुड़ा दिया गया है ताकि शिशु सांसारिक बनकर गृहस्थ जीवन व्यतीत करे। ‘अमृत-पान’ से सम्बन्ध यदि न हटे तो उस शिशु को पूरे जीवन भर खाद्य या पेय पदार्थों में से किसी की भी कभी आवश्यकता ही नहीं पड़ सकती है। 
अमृत-पान वह क्रिया है जिसके लिए बहुत-बहुत से योगी जीवन भर ‘खेचरी मुद्रा’ की क्रिया का अभ्यास करते रहते हैं। यह सबसे कठिन मुद्रा मानी जाती है। योगियों की माता भी यही मुद्रा कहलाई है।


अमृत के स्थान पर मधु चटाकर शिशु को फँसाना और पेट हेतु गुलाम बनाना –
अमृत-पान करते हुए शिशु की जिह्वा को जिह्वा-मूल से पकड़कर कण्ठ-कूप से बाहर खींचकर मुख के अन्दर सामान्य रूप में रख देते हैं। पहले पहल तो नार-पुरइन काट दी जाती है और नहीं तो जिह्वा को कण्ठ-कूप से खींचकर अमृत-पान को भी छुड़ा दिया जाता है, जिससे कि भूख-प्यास लगेगी तो शिशु हमारे अनुसार होने लगेगा, ऐसा होते-होते हमको ही अपना मानने लगेगा। इस प्रकार शिशु में पारिवारिकता और सांसारिकता में जकड़ दिया जाता है जिससे कि वह आसानी से क्या कठिनाई से भी निकलने में विभिन्न तरीकों के विरोधों और संघर्षों से गुजरता है। तब भी जीवन भर सशंकित ही रहता है कि कहीं फँस न जाय।
अमृत-पान से वंचित होने पर माता-पिता या पास-पड़ोस के जो लोग उस समय उस स्थान पर उपस्थित रहते हैं, बार बार यह कहना प्रारम्भ कर देते हैं कि जल्दी मधु चटाओ, नहीं तो गला सूख जाएगा। इन लोगों से यदि पूछा जाय कि आज तक गला क्यों नहीं सूखता था कि अब गला ही सूख जाएगा ? ऐसी क्या बात है ? उस पर तो कोई विचार नहीं करता। करता क्या है कि झट से ‘मधु’ लाया और चटा दी। शिशु बेचारा क्या करे ? उसको क्या पता कि पैदा होते ही मेरा जीवन धोखे, छल, पाखण्ड और मिथ्या भ्रम में डाला जा रहा है। अमृत-पान ही कर रहे हैं। इस प्रकार का धोखा, छल, पाखण्ड व्यवहार अपने पुत्र या पारिवारिक सदस्य रूप शिशु के साथ उसके पैदाइश के समय किया जाता है। अब विचारणीय बात तो यह है कि इस परिस्थिति से गुजरने वाले शिशु का अगला जीवन क्या होगा ? इस पर तो स्वार्थरत रहने के कारण कोई ध्यान नहीं देता है। शिशु बेचारे को क्या पता कि आज उसको अमृत के स्थान पर मधु दी जाती है, तो कल मधु के स्थान पर माता का दूध होगा, तो कुछ दिन बाद बकरी, गाय, भैंस का दूध दिया जाएगा। वह भी क्षमतानुसार, उसके बाद दूध के स्थान पर अन्न और पानी पर गुजर-बसर करना पड़ेगा। इतना ही नहीं, वह अन्न और जल भी अथक परिश्रम करने से ही मिलेगा, बहुतों को तो अथक परिश्रम करने के बाद भी पेट भर अन्न और पानी नहीं मिलेगा, ऐसे ही दुनिया में भ्रमण करना है।
अमृत-पान से हटाकर अन्न और जल से सम्बन्ध जोड़ने का परिणाम ही है कि पेट के लिए चोरी, घूसखोरी, डकैती तथा नाना तरह के कुकुर्मों से गुजरते हुये नौकरी और गुलामी तक करने पर भी विश्व के समक्ष भोजन एक सबसे जटिल समस्या बनी हुई है।


‘कान’ बन्द क्यों रहता है ?
गर्भस्थ शिशु जब गर्भ से बाहर आता है तो देखा जाता है कि उसका कान ‘एक विचित्र किस्म के ध्वनि अवरोधक पदार्थ’ रूप ‘जावक’ से बन्द रहता है, जिसके कारण बाहरी कोई ध्वनि या शब्द अन्दर नहीं पहुँच पाती है। गर्भ में नार-पुरइन के माध्यम से शिशु ब्रह्म-ज्योति से सम्बंधित रहता है जिसके कारण अन्नाहार और जल के स्थान पर अमृत-पान करता रहता है। ब्रह्म के पास निरन्तर दिव्य-ध्वनियाँ होती रहती हैं, जिसको सुनते हुये शिशु मस्त पड़ा रहता है जो ‘अनहद्-नाद’ कहलाता है। 
शिशु की नार-पुरइन जब काट दी जाती है तो ब्रह्म से सम्बन्ध भी कट जाता है और तब दिव्य ध्वनियाँ सुनाई देनी बन्द हो जाती हैं, जिसके स्थान पर माता-पिता या पारिवारिक सदस्य लोग शिशु को उन दिव्य ध्वनियों के स्थान पर धोखा, छल एवं कपट पूर्वक जो नकली ध्वनियाँ फूल की थाली बजाकर कि ये वही दिव्य ध्वनियाँ हैं, सुनाते हैं। शिशु बेचारे को क्या मालूम कि उसके माता-पिता एवं पारिवारिक सदस्यों द्वारा ही उसको प्रसूति-गृह में ही धोखा, छल, पाखण्ड, नकल एवं भ्रामक व्यवहार में फँसा दिया जाएगा।


‘सोsहं’ का नकल एवं फँसाहट रूप सोहर –
गर्भ स्थित शिशु शरीर में जैसे ही जीव का प्रवेश होता है जो ‘प्राण-प्रतिष्ठापन’ भी है, वैसे ही शरीर के अन्दर से यह आवाज निकलती है ---‘कोsहं’ जिसका अर्थ हुआ ‘मैं कौन ?’ कहीं से जबाब नहीं मिला, तब बार-बार यह आवाज होने लगी। तब कहीं एक विचित्र दिव्य-ज्योति दिखलाई दी, जो ‘सः’ शब्द रूप आवाज शरीर के अन्दर स्वांस-प्रस्वांस के साथ प्रवेश कर ‘कः’ के स्थान को ‘सः’ ले लेता है, जिससे कोsहं के स्थान पर सोsहं आवाज होने लगी, जो आज तक कायम है और आगे भी रहेगी।
जब सोsहं का सम्बन्ध कट जाता है, तब शिशु परेशान न हो अथवा परेशान होकर जीव शरीर ही न छोड़ दे, इसलिए सोsहं के स्थान पर ‘सोहर’ गा-गाकर शिशु को सुनाती हैं, जिसमें शिशु भटक जाता है कि हम उसी जाप को सुन रहे हैं। 
शिशु ब्रह्म से सम्बंधित रहने पर दिव्यानन्द से युक्त रहते हुए मस्ती के साथ उसी में लीन रहता था। परन्तु स्वार्थी, लोभी, आसक्त माता-पिता, पारिवारिक सदस्य बनने वाले लोग, जो शिशु के जीव के तो मीठे जहर रूपी शत्रु होते ही हैं परन्तु ये मीठे जहर ही शिशु के हितैषी बनने लगते हैं, जो कामिनी और कंचन रूप परिवारिकता, सामाजिकता और सम्पत्तिकर्ता रूप सांसारिकता में फँसा एवं जकड़कर बर्बाद कर डालते हैं। ये बनने वाले हितैषी जन स्वार्थी, लोभी, पाखण्डी, धोखेबाज़ एवं जालसाजों का एक बनावटी समाज होता है, जो शिशुओं का हितैषी बन कर प्रसूति गृह से ही शिशु के साथ धोखा, छल, प्रपञ्च रूप जालसाज़ी में फँसाकर, ब्रह्म का जीव से सम्बन्ध जो ब्रह्म-नाल के माध्यम से कायम था, उसी को काटकर अपने में साटना शुरू कर देते हैं कि – हम ‘माता’ हैं, हम ‘पिता’ हैं, हम ‘भाई’ हैं, हम ‘बहिन’ हैं, हम ‘दादा’ हैं, हम ‘मामा’ हैं, हम ‘मौसी’ हैं, हम ‘फूफा’ हैं आदि-आदि। ये सभी अपनी-अपनी क्षमतानुसार अपने-अपने सम्पर्कों को दिखा-दिखा कर फँसा देते हैं, जिसके कारण शिशु के शरीर में रहने वाला ‘अहम्’ बाद में ‘हम’ में अपभ्रंश रूप परिवर्तित होकर उच्चारित होने लगा। 
परमतत्त्वं (आत्मतत्त्वम्) से छिटककर ‘आत्म’ ‘शब्द’ रूप में अलग हुआ, पुनः ‘आत्म’ शब्द ‘सः’ शब्द में परिवर्तित हुआ, पुनः ‘सः’ शब्द ‘अहम्’ बनते हुये तुरन्त सोsहं शब्द-रूप में कायम रहा, फिर सोsहं में जब ‘सः’(ब्रह्म) से सम्बन्ध कट जाता है, तब मात्र ‘अहम्’ बाद में ‘हम’ ‘हम’ करते हुए जनमानस में उच्चारित होने लगा। अन्ततः वह ‘हम’ या ‘मैं’ नाना शरीरों में जुट-जुट कर शारीरिक नामों व रूपों में छिप जाता है, जिसके कारण यह पता नहीं लगता कि ‘हम’ अथवा ‘मैं’ कौन है ? कहाँ से आया है ? कहाँ रहता है ? आदि। 
‘हम’ अथवा ‘मैं’ क्या है ?
‘हम’ अथवा ‘मैं’ कौन है ?
‘हम’ अथवा ‘मैं’ कहाँ से आया है ?
‘हम’ अथवा ‘मैं’ कहाँ रहता है ?
‘हम’ अथवा ‘मैं’ किसके हैं ?
जिज्ञासु बन्धुओं ! अब आइये हम इन उपर्युक्त प्रश्नों पर बारी-बारी विचार-मन्थन, साधना और तत्त्वज्ञान पद्धति से यथार्थतः जानकारी करते हुये पहचान करें, तत्पश्चात् जो यथार्थतः सत्य हो उससे जुटकर अथवा एक होकर अपने गन्तव्य लक्ष्य को प्राप्त करते हुये मुक्त जीवन जियेँ ।

-------- सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस






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