योगी और ज्ञानी

(1) साधक योगी वह है जो पिण्ड के अन्दर ही जीव का आत्मा से मिलन (हंसो) साधना के माध्यम (स्वांस-प्रस्वांस) से करते हैं। परन्तु ज्ञानी या तत्वज्ञानी वह है जो ब्रह्माण्ड के अन्दर मानव का अवतार से मिलनतत्त्वज्ञान के माध्यम से (शरणागत भाव) से करते हैं।
(2) योगी अपने लक्ष्य रूप आत्मा की प्राप्ति हेतु अपने मन को इन्द्रिय रूपी गोलकों से बहिर्मुखी से हटाकर (खींचकर) अंतर्मुखी बनाते हुये स्वास-प्रस्वास में लगाकर जीव को समाधि अवस्था में आत्मा से मिलन करता है। इसकी ये समस्त क्रियाएँ पिण्ड के अन्तर्गत ही होती हैं। पिण्ड से बाहर योगी की कोई क्रिया-प्रक्रिया नहीं होती है। परन्तु ज्ञानी या तत्त्वज्ञानी अपने लक्ष्य रूप परमात्मा की प्राप्ति हेतु अपने जीवात्मा से युक्त शरीर (पिण्ड) को सम्बन्ध (ममता-आसक्ति) रूपी सम्बन्धियों से मोह आदि विषयों से हटाकर (खींचकर) पूर्णतः समर्पण (शरणागत) होते हुये सत्संग एवं धर्म संस्थापनार्थ अपनी सम्पूर्ण सम्पत्ति को लगाते हुये जीवात्मा से युक्त पिण्ड के अवतारी के अनुगामी के रूप में रहता है।
(3) योगी का कार्यक्षेत्र मात्र एक पिण्ड के अन्तर्गत ही रहता है परन्तु ज्ञानी का कार्यक्षेत्र सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड होता है।
(4) योगी ‘अहम्’ रूप जीव को ‘सः’ रूप आत्मा से मिलाकर जीवात्मा (हंसो) भाव से मात्र समाधि अवस्था तक ही रहता है परन्तु ज्ञानी ‘अहम्’ रूप जीव को ‘सः’ रूप आत्मा से मिलाते हुये परमात्मा से मिलाकर शरणागत भाव से शाश्वत् अद्वैत्तत्त्वबोध रूप में हो जाता है।
(5) योगी-मात्र समाधि में ही आत्मामय (हंसो) रूप में रहता है, जैसे ही समाधि टूटती है, वह पुनः सोsहं रूप होते हुये अहंकारी रूप ‘अहम्’ तत्पश्चात् शरीर (पिण्ड) में फँस जाता है, ठीक इसी प्रकार ज्ञानी अनुगामी (शरणागत) रूप में ही ‘मुक्त’ अमरता, परमपद, परमतत्त्वमय, पापमुक्त, बन्धन मुक्त, सच्चिदानन्दमय (आत्मतत्त्वम्) रूप में रहता है परन्तु जैसे अनुगामी (शरणागत) भाव के टूटते ही वह पुनः मिथ्याज्ञानभिमानी रूप होते हुये शैतानियत अहंकारी रूप में ‘अहम्’ होते हुये शरीर में फँसते हुये ममता और आसक्ति के कारण विनाश को प्राप्त होता है।
(6) योगी की स्थिति ठीक गूलर के कीड़े के समान होती है, जैसे गूलर का कीड़ा गूलर के फल के अन्दर रहते हुये उसी को सम्पूर्ण संसार भ्रमवश समझने और कहने भी लगता है और कहते-कहते यहाँ तक भी कहना आरम्भ कर देता है कि गूलर के एक फल के अन्तर्गत ही गूलर का वृक्ष रूप उसका संसार तथा गूलर के वृक्ष को लगाने और उसके(गूलर के) फल को खाने वाला किसान भी उसी फल में ही रहता है तत्पश्चात् स्वयं को ही गूलर लगाने और खाने वाला किसान भी घोषित करने लगता है, परन्तु ज्ञानी की स्थिति ऐसी नहीं होती है। ज्ञानी की स्थिति तो इस प्रकार होती है कि गूलर के फल सहित ज्ञानदाता रूप अवतारी के परमतत्व रूप विराट विराट रूप महाकारण शरीर के पेट में बैठ (प्रवेश) कर उसमें बैठकर यथार्थतः देखने लगता है कि एक फलमात्र ही उसका वृक्ष रूप संसार नहीं है और न तो गूलर वृक्ष लगाने तथा उसके फल को खाने वाला किसान रूप भगवान ही उसमें रहते हैं। यथार्थतः स्थिति यह है कि किसान रूप भगवान न तो गूलर का वृक्ष हैं और न ही उसका फल, वह तो गूलर के फल रूप बीज अपने ब्रह्माण्ड रूपी खेत में लगाता और उसके फलों को खाता रहता है अर्थात् बीज से वृक्ष और वृक्ष से बीज लगाते और खाते हुये दोनों (बीज रूप गूलर का फल तथा गूलर का वृक्ष) से अलग एक किसान के रूप में कायम रहता है और ज्ञानी उस किसान रूप भगवान् के साथ उसके अपने परिवार के रूप में अनुगामी भाव से कायम रहता है।

शरीर रचना
शरीर रचना हेतु सामग्रियों की मात्रा – एक शरीर के लिए औसतन अड़तालीस किलोग्राम मांस, तीन किलो चार सौ ग्राम त्वचा (चाम), चार किलो आठ सौ ग्राम रक्त, चार सौ अस्सी ग्राम मेदा, पाँच सौ अस्सी ग्राम मज्जा, दो किलो चार सौ ग्राम पित्त, तीन सौ ग्राम कफ, चार सौ सत्तर ग्राम वीर्य, एक सौ पचास ग्राम महारक्त, सौ मोटी, पतली करोड़ों नस-नाड़ियाँ एवं मल-मूत्र अथाह, तीन सौ साठ जोड़ों में अस्थियाँ, बत्तीस दाँत, बीस नाखून, सात लाख केश, तीन करोड़ पचास लाख रोम और दो सौ चालीस ग्राम रूधिर आदि-आदि सामग्रियाँ उपलब्ध होती हैं परन्तु संस्कार (पिछले कर्मफल) के प्रभाव से यह विधान काफी प्रभावित हो जाता है अर्थात संस्कार के माध्यम से किसी भी सामग्री की मात्रा परिवर्तित होती रहती है, संस्कार का प्रभाव शरीर पर सबसे अधिक पड़ता है।
शरीर रचना में प्राण-वायु के कार्य – आत्मा (सः) रूप शक्ति जिस वायु के सहारे शरीर में प्रवेश करती है वह प्राण-वायु है। यह दस भागों में विभाजित होकर दस स्थानों के माध्यम से कार्य करती है। इसमें पाँच तो प्रधान (1) प्राण (2) अपान (3) समान (4) उदान (5) व्यान तथा पाँच उप प्रधान (1) नाग (2) कुर्म (3) कृकर (4) देवदत्त और (5) धनंजय ।

शरीर रचना में नाड़ियों का कार्य – शरीर रचना में तो सामान्यतः बहत्तर( 72 ) करोड़ नाड़ियों की व्यवस्था इस शरीर के अन्दर की गई है जिनमें दस प्रधान नाड़ियाँ हैं –
(1) इंगला नाड़ी (2) पिंगला नाड़ी (3) सुषुम्ना नाड़ी (4) गान्धारी (5) गज जिह्वा (6) यशस्विनी (7) पूषा (8) कुहु (9) अलम्बुषा (10) शंखिनी ।
इन उपर्युक्त दस नाड़ियों में मुख्यतः तीन के कार्य ही वर्णनीय लगते हैं जो अग्रलिखित हैं –
(1) इंगला नाड़ी – यह वह नाड़ी है जो नाक की बांयी तरफ से आरम्भ होकर आज्ञा चक्र होते हुये मूलाधार तक जाती है तत्पश्चात् शरीर के स्थूल-सूक्ष्म समस्त नाड़ियों के जालों को बिखेरते और समेटते हुये अंदरूनी रूप से ही स्वाधिष्ठान, मणिपूरक, अनाहत्, विशुद्ध और आज्ञा-चक्र से आकर अपनी प्रवेश वाली नाड़ी में मिल जाती है। इंगला नाड़ी मानव शरीर के अन्तर्गत ठीक इसी प्रकार है जिस प्रकार किसी विद्युत चालित कारखाना या मशीन अथवा गाड़ी आदि में ऋण-विद्युत का कार्य है, इतना ही नहीं, इससे भी बहुत-बहुत अधिक जिसका कोई अनुपात ही नहीं, कोई उदाहरण नहीं, उदाहरण तो थोड़ा बहुत दिया जाता है समझाने के लिए अन्यथा ये सारी बातें अनुपमेय यानि उदाहरणों से परे होती हैं।
इंगला की सिद्धि प्राप्त करने वाला सिद्ध व्यक्ति आत्मा और परमात्मा को प्राप्त तो नहीं कर सकता परन्तु शेष में सृष्टि के अन्तर्गत ऐसा कोई कार्य नहीं है जिसको इसके सहारे सफलता पूर्वक इच्छानुसार हल न किया जा सके। इंगला वह सूक्ष्म तार है जिससे परमात्मा से सीधे उत्पन्न होने वाली चेतन आत्मा संसार में क्रियाशील होती है। मनुष्य के सांसारिक कार्य इच्छित सफलता की प्राप्ति मात्र दो भागों में बंटा हुआ है- मुलायम अथवा नरम और कठोर अथवा गरम कार्य।
मनुष्य के सांसारिक समस्त कार्यों में मुलायम अथवा नरम विभाग से सम्बंधित समस्त कार्यों के हल होने अथवा इच्छानुसार सफल होने के लिए अपने को इंगला नाड़ी से ही सम्बंधित करना पड़ेगा। यहाँ पर इसकी सिद्धि को प्राप्त करने से सम्बंधित क्रियाओं-प्रक्रियाओं की क्रियात्मक जानकारी छिपा दी जा रही है, ताकि सिद्धि और शक्ति का दुरुपयोग न हो, हाँ यदि कोई जिज्ञासु और श्रद्धालु ही साथ ही शर्त स्वीकार करे कि इसका दुरुपयोग नहीं करेगा, तो उस व्यक्ति को इसकी यथार्थतः क्रियात्मक एवं व्यावहारिक जानकारी यथार्थ प्रमाणों के साथ दी जा सकती है।
(2) पिंगला नाड़ी – यह वह नाड़ी है जो इंगला के पूरक के रूप में नाक की दायी तरफ से आज्ञा-चक्र से होते हुये मूलाधार-चक्र तक जाती है तत्पश्चात् स्वाधिष्ठान, मणिपूरक, अनाहत्, विशुद्ध एवं आज्ञा-चक्र में आकर अपने प्रवेश के समय वाली पूर्वावस्था में मिल जाती है। पिंगला नाड़ी, इंगला नाड़ी की एकमात्र पूरक नाड़ी है। यदि इंगला ऋण-विद्युत है तो पिंगला धन-विद्युत है। यदि इंगला गंगा है तो पिंगला यमुना, यदि इंगला चन्द्रनाड़ी है तो पिंगला सूर्य। यदि इंगला स्त्री प्रधान है तो पिंगला पुरुष प्रधान नाड़ी। जिस प्रकार इंगला नाड़ी मुलायम अथवा नरम कार्यों को करने के लिए नियत की गयी है, ठीक उसी प्रकार पिंगला नाड़ी कठोर अथवा कठिन कार्यों को करने के लिए नियत की गई है। इंगला नाड़ी और पिंगला नाड़ी इन दोनों की शक्ति सीमा ब्रह्माण्ड है अर्थात परमात्मा, आदि-शक्ति और आत्मा को छोड़कर ब्रह्माण्ड का प्रत्येक कार्य इच्छानुसार इसके सहारे किया जा सकता है। केवल आत्मा, आदि-शक्ति और परमात्मा ही इसके कार्य क्षेत्र अथवा प्रभाव से परे हैं, शेष सब इसके अधीन रहता है। ज्योतिष विद्या की उत्पत्ति भी इन्ही दोनों नाड़ियों से होती है साथ ही साथ रोग-व्याधि यहाँ तक कि जन्म और मौत को भी इन दोनों के सहारे इच्छानुसार किया जाता है।
(3) सुषुम्ना नाड़ी – यह वह नाड़ी है जो नाड़ी का जिस स्थान पर मिलन होता है, उसी स्थान से निकल कर आज्ञा-चक्र से होते हुए मूलाधार स्थित मूल में लिपटी हुई कुण्डलिनी-शक्ति (Serpent Fire) रूप सर्पिणी के मस्तक पर जाकर लटक जाती है तत्पश्चात् यह नाड़ी कुण्डलिनी-शक्ति का मार्ग प्रशस्त करते हुए स्वाधिष्ठान-चक्र, मणिपूरक-चक्र, अनाहत्-चक्र एवं विशुद्ध-चक्र होते हुए आज्ञा-चक्र में पहुँचकर ‘सः’ रूप आत्मा के स्थान पर खुली हुई पड़ी रहती है। दूसरे शब्दों में सुषुम्ना नाड़ी वह नाड़ी है जो आत्मा (सः) रूप चेतन शक्ति को जीव रूप अहम् रूप में परिवर्तिन हेतु कुण्डलिनी-शक्ति रूप आत्मा से एक-दूसरे को मिलने का मार्ग प्रशस्त करते हुए दोनों को जोड़ती है।
सुषुम्ना नाड़ी की सांसारिक कोई उपयोगिता नहीं होती परन्तु (शिव और शक्ति से मिलने अर्थात्) इसके बिना योग की कोई क्रिया नहीं की जा सकती।
सुषुम्ना मानव शरीर के अन्तर्गत एक ऐसी विचित्र नाड़ी होती है जो मात्र आत्मा (सः) रूप शब्द-शक्ति या ब्रह्म-शक्ति अथवा शिव-शक्ति से ‘अहम्’ रूप जीव बनना तत्पश्चात् योग-साधना के माध्यम से जीव रूप ‘अहम्’ से आत्मा (सः) रूप शब्द-शक्ति अथवा ब्रह्म-शक्ति अथवा चेतन-शक्ति से मिलकर जीव रूप ‘अहम्’ को शिव-शक्ति रूप हंसो बनने के लिए ही होती है इसके अतिरिक्त इसका और कोई कार्य नहीं होता है। संसार में आदिकाल से लेकर वर्तमान समय तक के जितने भी योगी-महात्मा, ऋषि-महर्षि थे अथवा सन्त-महात्मा हैं जो आत्मा (सः) रूप चेतन-शक्ति से सम्बंधित योग-साधना से सम्बंधित थे या हैं, वे सब के सब ही इसी सुषुम्ना नाड़ी से ही युक्त रहते हैं। केवल ज्ञानदाता तथा ज्ञानी शिष्य अथवा अवतारी तथा अनुयायी को ही इसकी आवश्यकता नहीं पड़ती है क्योंकि यह परमतत्त्वं (आत्मतत्त्वम्) रूप शब्द-ब्रह्म जो शब्द-शक्ति रूप ब्रह्म-शक्ति का भी उत्पत्तिकर्ता और अपने में विलयकर्ता होता है, से सम्बंधित तथा उसी का अनुगामी होता है। शेष सबका सम्बन्ध ही सुषुम्ना नाड़ी से रखना पड़ता है।
ग्रहस्थ वर्ग के लिए इंगला नाड़ी और पिंगला नाड़ी नियत है परन्तु योगी-यति, ऋषि-महर्षि, सन्त-महात्मा आदि के लिए सुषुम्ना नाड़ी ही नियत की गयी है। इंगला और पिंगला नाड़ी सुख, प्रसन्नता आदि के लिए हैं तो सुषुम्ना नाड़ी आनन्द और शान्ति के लिए नियत की गई है। इंगला और पिंगला नाड़ी सांसारिक सुखोपलब्धि कराने वाली होती हैं तो सुषुम्ना नाड़ी ब्रहमानन्दोपलब्धि कराने वाली होती है। सुषुम्ना नाड़ी आत्मिक अथवा शाक्तिक कार्यों में जितनी ही सुगमता पूर्वक सफलता उपलब्ध कराती है, सांसारिक कार्यों में उतनी ही दुरूहता और विध्न उत्पन्न करती है। सांसारिक लाभ किसी भी रूप में इससे हासिल नहीं हो सकता है।

एक प्रवाह युक्त अक्षय-बिन्दु
कुण्डलिनी-शक्ति (Serpent Fire) – मूलाधार स्थित ‘मूल’ जो शिव-लिंग कहलाता है, में साढ़े तीन फेरे में लिपटी हुई, सर्पिणी की आकृति की एक सूक्ष्म स्वतन्त्र नाड़ी होती है जिसमें आत्मा (सः) रूप शब्द-शक्ति अथवा चेतन-शक्ति पहुँचकर ‘अहम्’ रूप जीव में परिवर्तित हो जाती है। अब जब जीव उर्ध्व गति के माध्यम से पुनः शिव बनना चाहता है, तब तो कुण्डलिनी-शक्ति मूल से उठकर सुषुम्ना के सहारे नाना प्रकार की उर्ध्व गतियों को प्राप्त करती और छोड़ती हुई आत्मा (सः) रूप शब्द-शक्ति अथवा चेतन-शक्ति से मिलकर जीव रूप ‘अहम्’ हंसो रूप शिव-शक्ति हो जाती है।

पुनः जब जीव अधोगति रूप में सन्तानोत्पत्ति करना चाहता है, तब कुण्डलिनी जागती है। जब बार-बार स्त्री-पुरुषों द्वारा मैथुनी सम्बन्ध के समय सोयी हुई सर्पिणी रूप कुण्डलिनी-शक्ति जागती है और अधोगति वाली क्रिया-कलाप देखकर क्रोधित होकर फुफकार करती है जिससे अहम् रूप जीव एक तेज प्रवाह युक्त अक्षय-बिन्दु (Fluid Existing drop of self that moves rapidly) रूप में परिवर्तित होकर तुरन्त शुक्र (Semen) रूप में पुनः विकार क्रम से कोष (Cell) रूप में परिवर्तित हो जाता है पुनः सुरक्षा हेतु बीज (Sperm) में प्रवेश कर जाता है और बीज के सहारे गर्भाशय में प्रवेश कर पुनः विकास क्रम से स्वर्णिम-अण्डाकार (हिरण्य गर्भ) रूप में परिवर्तित हो जाता है। चूंकि यहाँ पर कुण्डलिनी-शक्ति की गति दो तरफ में बंटी हुई है –
(1) उर्ध्वगति
(2) अधोगति
(1) कुण्डलिनी की उर्ध्वगति – जब कोई व्यक्ति किसी गुरु से योग-साधना सीखता और करता है, तब साधना में बार-बार स्वास-प्रस्वास की क्रिया करने से इंगला नाड़ी और पिंगला नाड़ी सम हो जाती है, तत्पश्चात् सुषुम्न्ना नाड़ी में प्राण-वायु (स्वांस) के साथ आत्मा (सः) रूप चेतन-शक्ति प्रविष्ट होकर आगे बढ़ते हुये मूलाधार-चक्र में स्थित मूल रूप शिव-लिंग में साढ़े तीन वलय (फेरे) में लिपटी हुई कुण्डलिनी नाम की एक सूक्ष्म-स्वतन्त्र नाड़ी जो सर्पिणी-शक्ति (Serpent Fire) भी कहलाती है, के सिर पर ठोकर मारती है जिसके कारण सोयी हुई कुण्डलिनी-शक्ति जग जाती है, खुले मुख वाली सुषुम्ना-नाड़ी में स्वांस-प्रस्वांस रूपी डोरी (रस्सी) के सहारे ‘अहम्’ रूप जीव के साथ ऊपर उठने अथवा चलने लगती है जो क्रमशः मूलाधार से चलकर स्वाधिष्ठान-चक्र में पहुँचकर विश्राम लेती है। पुनः यदि साधना जारी रही तो कुण्डलिनी-शक्ति स्वाधिष्ठान-चक्र से ऊपर उठकर अथवा चलकर मणिपूरक-चक्र में प्रवेश करेगी। पुनः वहाँ विश्राम करेगी। इसी प्रकार यदि साधना जारी रही तो क्रमशः पहुँचते और विश्राम करते हुये यह मणिपूरक से अनाहत्-चक्र, अनाहत् से विशुद्ध-चक्र और विशुद्ध से आज्ञा-चक्र तक पहुँचकर ‘अहम्’ रूप जीव को ‘सः’ रूप चेतन-आत्मा से मुलाक़ात करा देती है जिसके परिणामस्वरूप ‘अहम्’ रूप जीव ‘सः’ रूप आत्मा अथवा चेतन-शक्ति से मिलकर शिव हो जाता है तत्पश्चात् शिव और शक्ति दोनों ‘हंसो’ रूप में संयुक्त रूप में एक साथ ही रहने लगते हैं। यही कुण्डलिनी-शक्ति की उर्ध्वगति है।
कुण्डलिनी-शक्ति जिस चक्र में पहुँचकर विश्राम करती है उस समय उस व्यक्ति के पास उस चक्र के अभीष्ट देवता की शक्ति हो जाती है। जिन-जिन चक्रों में विश्राम करती हुई ऊपर को जाती है उन-उन चक्रों को गुण-कर्म एवं अवस्था के अनुसार देखें, वे अग्रलिखित हैं –
(1) मूलाधार-चक्र (2) स्वाधिष्ठान-चक्र (3) मणिपूरक-चक्र (4) अनाहत्-चक्र (5) विशुद्ध-चक्र (6) आज्ञा-चक्र (7) सहस्रार

शरीर स्थित चक्र 
(1) मूलाधार-चक्र - मूलाधार-चक्र वह चक्र है जहाँ पर शरीर का संचालन वाली कुण्डलिनी-शक्ति से युक्त ‘मूल’ आधारित अथवा स्थित है। यह चक्र शरीर के अन्तर्गत गुदा और लिंग मूल के मध्य में स्थित है जो अन्य स्थानों से कुछ उभरा सा महसूस होता है। शरीर के अन्तर्गत ‘मूल’, शिव-लिंग आकृति का एक मांस पिण्ड होता है, जिसमें शरीर की संचालिका शक्ति रूप कुण्डलिनी-शक्ति साढ़े तीन फेरे में लिपटी हुई शयन-मुद्रा में रहती है। चूँकि यह कुण्डलिनी जो शरीर की संचालिका शक्ति है और वही इस मूल रूपी मांस पिण्ड में साढ़े तीन फेरे में लिपटी रहती है इसी कारण इस मांस-पिण्ड को मूल और जहाँ यह आधारित है, वह मूलाधार-चक्र कहलाता है।
मूलाधार-चक्र अग्नि वर्ण का त्रिभुजाकार एक आकृति होती है जिसके मध्य कुण्डलिनी सहित मूल स्थित रहता है। इस त्रिभुज के तीनों उत्तंग कोनों पर इंगला, पिंगला और सुषुम्ना आकर मिलती है। इसके अन्दर चार अक्षरों से युक्त अग्नि वर्ण की चार पंखुणियाँ नियत हैं। ये पंखुणियाँ अक्षरों से युक्त हैं वे – स, ष, श, व । यहाँ के अभीष्ट देवता के रूप में गणेश जी नियत किए गए हैं। जो साधक साधना के माध्यम से कुण्डलिनी जागृत कर लेता है अथवा जिस साधक की स्वास-प्रस्वास रूप साधना से जागृत हो जाती है और जागृत अवस्था में उर्ध्वगति में जब तक मूलाधार में रहती है, तब तक वह साधक गणेश जी की शक्ति से युक्त व्यक्ति हो जाता है।
जब साधक-सिद्ध व्यक्ति सिद्धियों के चक्कर अथवा प्रदर्शन में फँस जाता है तो उसकी कुण्डलिनी उर्ध्वमुखी से अधोमुखी होकर पुनः शयन-मुद्रा में चली जाती है जिसका परिणाम यह होता है की वह सिद्ध-साधक सिद्धि का प्रदर्शन अथवा दुरुपयोग करते-करते पुनः सिद्धिहीन हो जाता है। परिणाम यह होता है कि वह उर्ध्वमुखी यानि सिद्ध योगी तो बन नहीं पाता, सामान्य सिद्धि से भी वंचित हो जाता है। परन्तु जो साधक सिद्धि की तरफ ध्यान न देकर निरन्तर मात्र अपनी साधना करता रहता है उसकी कुण्डलिनी उर्ध्वमुखी के कारण ऊपर उठकर स्वास-प्रस्वास रूपी डोरी (रस्सी) के द्वारा मूलाधार से स्वाधिष्ठान-चक्र में पहुँच जाती है।
गणेश जी की प्रथम पूजा क्यों ? – सामान्यतः देखा और सुना जाता है कि सर्वप्रथम पूजा गणेश जी की जाती है अथवा होती है। इस पर यह प्रश्न बनता है कि क्यों ? – सामान्यतः जाना और देखा भी जाता है कि मानव समाज योगी-यति, ऋषि-महर्षि, सन्त-महात्मा आदि द्वारा ही निर्देशित किया जाता है। अब देखें कि योगी-यति, ऋषि-महर्षि, सन्त-महात्मा आदि जब साधना करते हैं तो साधना के अन्तर्गत जो प्रमुख सिद्ध स्थल जैसे मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूरक, अनाहत्, विशुद्ध, आज्ञा और सहस्रार हैं जिनमें सर्वप्रथम मूलाधार चक्र ही पड़ता है जिसके अभीष्ट देवता गणेश जी नियत हैं। यही कारण है कि सर्वप्रथम पूजा गणेश जी की होने लगी।

गणेश जी सर्वप्रथम पूजित होने के बावजूद भी श्रेष्ठतम् नहीं :- 
यह बात सत्य है कि गणेश जी की पूजा सर्वप्रथम होती है परन्तु इसका अर्थ भूल एवं भ्रमवश यह नहीं मान लेना चाहिए कि सबसे श्रेष्ठ देवता गणेश जी ही हैं, इसलिए इनकी पूजा सर्वप्रथम की जाती है। इनसे बड़े तो इनके बाद स्वाधिष्ठान के अभीष्ट देवता इन्द्र ही हैं, इन दोनों से बड़े मणिपूरक स्थित ब्रह्मा जी हैं, इन तीनों से बड़े अनाहत् के देवता विष्णु जी हैं, इन चारों से बड़े विशुद्ध के देवता शंकर जी हैं, इन पाँचों से बड़े तो शब्द-शक्ति अथवा ब्रह्म-शक्ति रूप आत्मा नियत है और इन सभी से श्रेष्ठ गुरु होते हैं जो सहस्रार में वर और अभय मुद्रा में पड़े रहते हैं। इतना ही नहीं गणेश जी से बड़े तो उन्ही के चक्र मूलाधार में ही रहने वाली कुण्डलिनी शक्ति और मूलरूप शिव-लिंग ही होते हैं क्योंकि शिव-शक्ति से गणेश की उत्पत्ति होती है। इस प्रकार अब तो समझ में आ ही गया होगा कि सर्वप्रथम पूजा का भाव यह नहीं है कि गणेश जी सबसे बड़े देवता हैं।
सर्वप्रथम पूजा की यथार्थता यह है कि कोई योगी-यति, ऋषि-महर्षि, सन्त-महात्मा आदि जब कभी भी साधना शुरू करते हैं तो सर्वप्रथम मूलाधार चक्र के देवता गणेश जी के क्षेत्र से ही गुजरना पड़ता है, इसीलिए सर्वप्रथम पूजा गणेश जी की नियत हो गयी। श्रेष्ठता क्रम उपर्युक्त जो वर्णित है सामान्य स्थिति में तो यही क्रम नियत है परन्तु श्री विष्णु जी वाले शरीर के माध्यम से परमतत्त्वं (आत्मतत्त्वम्) रूप शब्द-ब्रह्म रूप परमब्रह्म परमेश्वर का अवतार हो गया, तब से श्रेष्ठ, सबसे उच्च और सबसे उत्तम स्थान श्री विष्णु जी को मिला और यह सर्वोच्चता सर्वश्रेष्ठता और सर्वोत्तमता तब तक रही जब तक कि अगली बार पुनः परमेश्वर का अवतरण नहीं हुआ था। जैसे ही श्री रामचन्द्र जी महाराज वाली शरीर से अवतरण हो गया, श्री विष्णु जी वाली विशेषता श्री रामचन्द्र जी में चली गयी और उनमें भी तब तक रही जब तक कि पुनः वही परमतत्त्वं (आत्मतत्त्वम्) रूप शब्द-ब्रह्म का अगला अवतरण नहीं हुआ, और जैसे ही श्री कृष्ण जी महाराज वाले शरीर से अवतरण हो गया तो श्री राम जी वाली विशेषताएँ श्रीकृष्ण जी महाराज में आ गयीं और उनके नाम पर तब तक रहीं, जब तक कि पुनः उसी परमतत्त्वं (आत्मतत्त्वम्) रूप शब्द-ब्रह्म) रूपी परमेश्वर जिनका जो अवतरण हुआ है, घोषित नहीं हो जाता कि अमुक शरीर से वर्तमान में अवतरण हुआ है। यह बात भी सत्य ही है कि परमब्रह्म परमेश्वर के अवतरण वाले शरीर की घोषणा और मान्यता कोई अन्य व्यक्ति नहीं करता। यह घोषणा और मान्यता भी स्वयं उसी के द्वारा ही होती है। अब वह समय भी अति निकट ही है जब परमेश्वर के वर्तमान अवतरण वाले शरीर की घोषणा सर्वविदित हो जाएगी।
(2) स्वाधिष्ठान-चक्र – यह वह चक्र है जो लिंग मूल से चार अंगुल ऊपर स्थित है। स्वाधिष्ठान-चक्र में चक्र के छः दल हैं, जो पंखुणियाँ कहलाती हैं। यह चक्र सूर्य वर्ण का होता है जिसकी छः पंखुनियों पर स्वर्णिम वर्ण के छः अक्षर होते हैं जैसे- य, र, य, म, भ, ब । इस चक्र के अभीष्ट देवता इन्द्र नियत हैं। जो साधक निरन्तर स्वांस-प्रस्वांस रूपी साधना में लगा रहता है, उसकी कुण्डलिनी ऊर्ध्वमुखी होने के कारण स्वाधिष्ठान में पहुँचकर विश्राम लेती है। तब इस स्थिति में वह साधक इन्द्र की सिद्धि प्राप्त कर लेता है अर्थात सिद्ध हो जाने पर सिद्ध इन्द्र के समान शरीर में इन्द्रियों के अभिमानी देवताओं पर प्रशासन करने लगता है, इतना ही नहीं प्रशासनिक नेता, मन्त्री और राजा लोग भी प्रशासनिक व्यवस्था के सुचारु एवं सुदृढ़ता हेतु आशीर्वचन हेतु आने और निर्देशन में चलने लगते हैं। साथ ही सिद्ध-पुरुष में प्रबल अहंकार रूप में अभिमानी होने लगता है जो उसके लिए बहुत ही खतरनाक होता है। यदि थोड़ी सी भी असावधानी हुई तो चमत्कार और अहंकार दोनों में फँसकर बर्बाद होते देर नहीं लगती क्योंकि अहंकार वष यदि साधना बन्द हो गयी तो आगे का मार्ग तो रुक ही जाएगा, वर्तमान सिद्धि भी समाप्त होते देर नहीं लगती है। इसलिए सिद्धों को चाहिए कि सिद्धियाँ चाहे जितनी भी उच्च क्यों न हों, उसके चक्कर में नहीं फँसना चाहिए लक्ष्य प्राप्ति तक निरन्तर अपनी साधना पद्धति में उत्कट श्रद्धा और त्याग भाव से लगे रहना चाहिए।
(3) मणिपूरक-चक्र – नाभि मूल में स्थित रक्त वर्ण का यह चक्र शरीर के अन्तर्गत मणिपूरक नामक तीसरा चक्र है, जो दस दल कमल पंखुनियों से युक्त है जिस पर स्वर्णिम वर्ण के दस अक्षर बराबर कायम रहते हैं। वे अक्षर – फ, प, न, ध, द, थ, त, ण, ढ एवं ड हैं। इस चक्र के अभीष्ट देवता ब्रह्मा जी हैं। जो साधक निरन्तर स्वांस-प्रस्वांस रूप साधना में लगा रहता है उसी की कुण्डलिनी-शक्ति मणिपूरक-चक्र तक पहुँच पाती है आलसियों एवं प्रमादियों की नहीं। मणिपूरक-चक्र एक ऐसा विचित्र-चक्र होता है; जो तेज से युक्त एक ऐसी मणि है, जो शरीर के सभी अंगों-उपांगों के लिए यह एक आपूर्ति-अधिकारी के रूप में कार्य करता रहता है। यही कारण है कि यह मणिपूरक-चक्र कहलाता है। नाभि कमल पर ही ब्रह्मा का वास है। सहयोगार्थ-समान वायु - मणिपूरक-चक्र पर सभी अंगों और उपांगों की यथोचित पूर्ति का भार होता है। इसके कार्य भार को देखते हुये सहयोगार्थ समान वायु नियत की गयी, ताकि बिना किसी परेशानी और असुविधा के ही अतिसुगमता पूर्वक सर्वत्र पहुँच जाय। यही कारण है कि हर प्रकार की भोग्य वस्तु इन्ही के क्षेत्र के अन्तर्गत पहुँच जाने की व्यवस्था नियत हुई है ताकि काफी सुविधा-पूर्वक आसानी से लक्ष्य पूर्ति होती रहे।
मणिपूरक-चक्र के अभीष्ट देवता ब्रह्मा जी पर ही सृष्टि का भी भार होता है अर्थात गर्भाशय स्थित शरीर रचना करना, उसकी सामग्रियों की पूर्ति तथा साथ ही उस शरीर की सारी व्यवस्था का भार जन्म तक ही इसी चक्र पर रहता है जिसकी पूर्ति ब्रह्मनाल (ब्रह्म-नाड़ी) के माध्यम से होती रहती है। जब शरीर गर्भाशय से बाहर आ जाता है तब इनकी जिम्मेदारी समाप्त हो जाती है।

आशीर्वचन द्वारा संतानोत्पत्ति – जो साधक मणिपूरक-चक्र में स्थित ब्रह्मा की सिद्धि प्राप्त कर लेता है, वह सिद्ध पुरुष आशीर्वचन के माध्यम से सन्तान उत्पन्न कर सकता है जैसे बाल्मीकी ने कुश की, की थी और प्रायः सन्त-महात्मा करते ही रहते हैं। परन्तु सिद्धों को चाहिए कि अत्यावश्यक परिस्थितियों में ही इस सिद्धि का प्रयोग करें क्योंकि इसमें फँसने की अत्याधिक सम्भावना रहती है। 
मणिपूरक-चक्र ही शरीर का केंद्र बिन्दु होता है। यहीं से शरीर में सब तरफ नाड़ियों का जाल बिछा होता है। समस्त अंगों-उपांगों की आपूर्ति व्यवस्था भी यहीं से होती है।
(4) अनाहत्-चक्र – हृदय स्थल में स्थित स्वर्णिम वर्ण का द्वादश दल कमल की पंखुड़ियों से युक्त द्वादश स्वर्णाक्षरों से सुशोभित चक्र ही अनाहत्-चक्र है। जिन द्वादश(१२) अक्षरों की बात काही जा रही है वे – ठ, ट, ञ, झ, ज, छ, च, ड़, घ, ग, ख और क हैं। इस के अभीष्ट देवता श्री विष्णु जी हैं। अनाहत्-चक्र ही वेदान्त आदि में हृदय-गुफा भी कहलाता है, जिसमें ईश्वर स्थित रहते हैं, ऐसा वर्णन मिलता है। ईश्वर ही ब्रह्म और आत्मा भी है।
क्षीर सागर – सागर क अर्थ अथाह जल-राशि से होता है और क्षीर क अर्थ दूध होता है। इस प्रकार क्षीर-सागर क अर्थ दूध का समुद्र होता है। इसी क्षीर-सागर में श्री विष्णु जी योग-निद्रा में सोये हुये रहते हैं। नाभि-कमल स्थित ब्रह्मा जी जब अपनी शरीर रचना की प्रक्रिया पूरी करते हैं उसी समय क्षीर सागर अथवा हृदय गुफा अथवा अनाहत् चक्र स्थित श्री विष्णु जी अपनी संचालन व्यवस्था के अन्तर्गत रक्षा व्यवस्था के रूप में आवश्यकता अनुसार दूध की व्यवस्था करना प्रारम्भ करने लगते हैं और जैसे ही शरीर गर्भाशय से बाहर आता है वैसे ही माता के स्तन से दूध प्राप्त होने लगता है और आवश्यकतानुसार दूध उपलब्ध होता रहता है। यहाँ पर कितना दूध होता है, उसका अब तक कोई आकलन नहीं हो सका है। सन्तान जब तक अन्नाहार नहीं करने लगता है, तब तक दूध उपलब्ध रहता है, इतना ही नहीं जितनी सन्तानें होंगी सबके लिए दूध मिलता रहेगा। ऐसी विधि और व्यवस्था नियत कर दी गयी है। दूसरे शब्दों में ब्रह्मा जी का कार्य जैसे ही समाप्त होता है, श्री विष्णु जी का कार्य प्रारम्भ हो जाता है और श्री विष्णु जी का कार्य जैसे ही समाप्त होता है, शंकर जी का कार्य वैसे ही प्रारम्भ हो जाता है। माता के दोनों स्तनों में तो क्षीर (दूध) रहता है परन्तु दोनों स्तनों के मध्य में ही हृदय-गुफा अथवा अनाहत्-चक्र जिसमें श्री विष्णु जी वास करते हैं, होता है। अर्थात् जो क्षीर-सागर है, वही हृदय गुफा है और जो हृदय गुफा है वही अनाहत्-चक्र है और इसी चक्र के स्वामी श्री विष्णु जी हैं।
सबका एक ही – यथार्थ बात यह है कि जो कर्मकांडियों का क्षीर-सागर है, वही वेदान्तियों का हृदय गुफा है और वही ध्यान-साधना वाले साधकों का अनाहत्-चक्र है। जब कुण्डलिनी अनाहत्-चक्र में प्रवेश कर उर्ध्वमुखी रूप में विश्राम लेते हुये जब तक इस चक्र में वास करती है, तब तक साधन-रत सिद्ध-साधक श्री विष्णु जी की सिद्धि को प्राप्त कर के उसी के प्रभाव के समान प्रभावी होने लगता है।
दोनों विष्णु जी में अन्तर – यहाँ पर श्री विष्णुजी से तात्पर्य अवतारी रूप श्री विष्णु जी महाराज से न होकर सामान्य देवता क्रम रूप विष्णु जी से है। अवतारी रूप श्री विष्णु जी महाराज हृदय-गुफा या अनाहत्-चक्र में नहीं रहते हैं बल्कि परम आकाश रूप परमधाम में रहते हैं। जब समय-समय पर नारद, ब्रह्मा और शंकर जी से युक्त समूह की करुण पुकार होती है, परमेश्वर का अपने परमधाम से अवतरण होता है और शरीर धारण कर उसी शरीर के माध्यम से दुष्टों का विनाश और सज्जनों की रक्षा करते हुये धर्म की स्थापना करते हैं। अतः योगियों-साधकों के विष्णु जी और अवतार वाले श्री विष्णु जी महाराज में अंश और अंशी वाला अन्तर रहता है। देवता विष्णु अंश और अवतारी श्री विष्णु अंशी हैं।
(5) विशुद्ध-चक्र – कण्ठ स्थित चन्द्र वर्ण का षोडसाक्षर अः, अं, औ, ओ, ऐ, ए, ऊ, उ, लृ, ऋ, ई, इ, आ, अ वर्णों से युक्त षोडसदल कमल की पंखुड़ियों वाला यह चक्र विशुद्ध-चक्र है, यहाँ के अभीष्ट देवता शंकर जी हैं।
जब कुण्डलिनी-शक्ति विशुद्ध-चक्र में प्रवेश कर विश्राम करने लगती है, तब उस सिद्ध-साधक के अन्दर संसार त्याग का भाव प्रबल होने लगता है और उसके स्थान पर सन्यास भाव अच्छा लगने लगता है। संसार मिथ्या, भ्रम-जाल, स्वप्नवत् आदि के रूप में लगने लगता है। उस सिद्ध व्यक्ति में शंकर जी की शक्ति आ जाती है।
(6) आज्ञा-चक्र – भू-मध्य स्थित लाल वर्ण दो अक्षरों हं, सः से युक्त दो पंखुड़ियों वाला यह चक्र ही आज्ञा-चक्र है। इसका अभीष्ट प्रधान आत्मा (सः) रूप शब्द-शक्ति अथवा चेतन-शक्ति अथवा ब्रह्म-शक्ति अथवा ईश्वर या नूरे-इलाही या चाँदना अथवा दिव्य-ज्योति अथवा डिवाइन लाइट अथवा भर्गो-ज्योति अथवा सहज-प्रकाश अथवा परमप्रकाश अथवा आत्म ज्योतिर्मय शिव आदि-आदि अनेक नामों वाला परन्तु एक ही रूप वाला ही नियत है। यह वह चक्र है जिसका सीधा सम्बन्ध आत्मा (सः) रूप चेतन-शक्ति अथवा शब्द-शक्ति से और अप्रत्यक्ष रूप अर्थात् शब्द-शक्ति के माध्यम से शब्द-ब्रह्म रूप परमेश्वर से भी होता है। दूसरे शब्दों में आत्मा का उत्पत्ति स्रोत तो परमेश्वर होता है और गन्तव्य-स्थल आज्ञा-चक्र होता है।

संगम या त्रिवेणी 
जहाँ पर दो नदियाँ मिलकर तीसरा रूप लेकर बहती हैं तो वह मिलन-स्थल ही संगम है। परन्तु जहाँ पर प्रसिद्धि प्राप्त तीनों नदियाँ- गंगा, यमुना और सरस्वती मिलती हों, उसकी महत्ता को क्या कहा जाय। उसमें भी जहाँ अक्षय-वट हो, वह भी भारद्वाज ऋषि जैसे उपदेशक के साथ, तो उसकी महिमा में चार चाँद ही ला देता है। परन्तु यह सारी महिमा मात्र कर्मकांडियों के लिए ही है योगियों-महात्माओं और ज्ञानियों के लिए नहीं, क्योंकि कर्म-कांड की मर्यादा तभी तक रहती है, जब तक कि योग-साधना नहीं जानी और की जाती और ज्ञान में तो ये कर्मकांडी और योगी-महात्मा सभी आकर विलय कर जाते हैं। अब आप योगी-महात्माओं के संगम या त्रिवेणी को जाने, देखें और स्नान करें –

योगी-महात्माओं का संगम या त्रिवेणी
योग-साधना करने वाले साधक योगी जब साधना करते हैं तो साधना में इंगला रूपी गंगा, पिंगला रूपी यमुना और सुषुम्ना रूपी सरस्वती तीनों प्रसिद्धि प्राप्त नाड़ियों का जहाँ मिलन होता है, वह योगी-महात्माओं का संगम या त्रिवेणी है। जिस प्रकार कर्मकांडियों के संगम में सामान्यतः गंगा और यमुना ही दिखलाई देती हैं, सरस्वती नहीं। जो सरस्वती को देखना चाहता है उसे नाव से जाकर सरस्वती कुण्ड में झांकना पड़ता है तब दिखलाई देती है। ठीक इसी प्रकार योगी-महात्माओं के संगम में भी इंगला और पिंगला तो सामान्यतः सबको दिखलाई देती है, सुषुम्ना नहीं। जो साधक सुषुम्ना को देखना चाहता है उसे सुरति रूपी नाव पर सवार होकर आज्ञा-चक्र स्थित सुषुम्ना को देखने हेतु ध्यान द्वारा आज्ञा-चक्र में झाँकना पड़ता है तब जाकर सुषुम्ना दिखलाई देती है।
अतः इन उपरोक्त तीनों नाड़ियों में से अलग-अलग एक-एक की महिमा गाई जाय तो पार नहीं लगने को है और जहाँ तीनों मिलती हों, उनकी महिमा क्या बतलाई जाय; उसमें भी जहाँ अविनाशी आत्मा (सः) रूपी चेतन-शक्ति रूपी अक्षय-वट हो, वह भी गुरु रूपी भारद्वाज की उपस्थिति हो तो इसकी महिमा को अवर्णनीय कहना अधिक उचित होगा। कर्मकांडियों और योगी-महात्माओं के संगम के बावजूद ज्ञानियों का संगम सर्वोत्तम महत्त्व वाला है।

ज्ञानियों का संगम या त्रिवेणी
ज्ञानियों के परमतत्त्वं (आत्मतत्त्वम्) रूपी शब्द-ब्रह्म रूपी परमब्रह्म परमेश्वर के अपने परम आकाश रूप परमधाम से अवतरण वाले शरीर रूप अवतारी की भक्ति रूपी, परमतत्त्वं (आत्मतत्त्वम्) रूपी परमात्मा जिनको लोग निराकार कहते हैं, उनकी जानकारी दर्शन एवं बात-चीत करते हुये पहचान करने-कराने वाली ज्ञान चर्चा रूपी सरस्वती और विधि “किए जाने वाले कर्तव्य” – निषेध नहीं करने योग्य कार्य अर्थात निष्काम कर्म रूपी विधि और सकाम कर्म रूपी निषेध जन्म-मरण रूपी चक्र को हरण करने वाले कर्मों के रहस्य को जानने वाले के रूप में यमुना अर्थात प्रभु-भक्ति रूप गंगा, निष्काम और सकाम कर्म रूप विधि और निषेध रूपी कर्मों के रहस्य की कथा अथवा सत्संग द्वारा समझाने वाले मार्ग रूपी यमुना; और परमेश्वर के ज्ञान रूपी सरस्वती- तीनों प्रसिद्धि प्राप्त मार्गों का एकीकरण (अद्वैत्तत्त्व) जहाँ होता है, वह ज्ञानी अथवा मुक्त पुरुषों का संगम अथवा त्रिवेणी है। ज्ञानी या मुक्त पुरुषों के संगम में भी अवतारी रूप साकार प्रभु की भक्ति मार्ग और निष्काम कर्म करने रूपी विधि और सकाम-कर्म माना करने रूपी निषेध रूप कर्म के रहस्यों की कथा (सत्संग द्वारा समझाना) मार्ग तो सामान्यतः सबको दिखलाई देता है, लेकिन परमतत्त्वं (आत्मतत्त्वम्) रूपी परमेश्वर का ज्ञान (जानकारी, दर्शन तथा बात-चीत करते हुये पहचान) सबको दिखाई नहीं देता है। जो श्रद्धालु और उत्कट जिज्ञासु परमतत्त्वं (आत्मतत्त्वम्) रूपी परमेश्वर को जानने-देखने और बात-चीत करते हुये पहचान कराने वाले ज्ञान को देखना चाहता है तो उसे श्रद्धा और समर्पण (शरणागति) रूपी नौका में शरणागत रूपी सवार होकर ज्ञान-पद्धति में यथार्थतः तत्त्वज्ञान को देखने हेतु ज्ञान दृष्टि अथवा तत्त्व दृष्टि द्वारा ज्ञान-पद्धति को समझते हुये देखना पड़ता है, तब जाकर परमतत्त्वं (आत्मतत्त्वम्) रूपी परमेश्वर का यथार्थतः ज्ञान-मार्ग दिखलाई पड़ता है।

संगम या त्रिवेणी स्नान और फल 
कर्मकांडियों हेतु – गंगा, यमुना और सरस्वती- तीनों प्रसिद्धि प्राप्त नदियों का मिलन रूप संगम में जो व्यक्ति स्नान करता है उसका, उसकी क्षमतानुसार पाप धुल जाता है और पुण्य मिल जाता है परन्तु वह पूर्णता को प्राप्त नहीं होता है, उसके बाद वह अक्षय-वट का दर्शन करता है, वहाँ भी दर्शन से उनकी क्षमतानुसार ही पाप धुल जाता है और पुण्य मिल जाता है फिर भी पूर्णता को प्राप्त नहीं होता है तो उसकी महिमा को जानने और उपदेश को प्राप्त करने हेतु भारद्वाज आश्रम जाकर भारद्वाज मुनि से उपदेश लेते हैं। उसमें भी पूर्णता नहीं हो पाती है, तब धार्मिक व्यक्ति जिनमें श्रद्धापूर्ण विश्वास होता है वह उपर्युक्त समस्त कार्यों को नियमतः नित्य करते हुये एक माह तक कल्प वास लेते हैं, तब जाकर कुछ संतुष्टि होती है। परन्तु जैसे ही वह स्नानार्थी कल्प वास से वापस अपने घर को आते हैं तो पुनः पाप सवार हो जाता है जिसके कारण नाना तीर्थ स्थलों में जाते-आते रहते हैं। यही क्रम जीवन भर होता रहता है।
योगी महात्माओं हेतु- इंगला, पिंगला और सुषुम्ना- तीनों प्रसिद्धि प्राप्त नाड़ियों का मिलन रूप संगम में जो साधक स्वांस-प्रस्वांस और ध्यान आदि साधनाओं के द्वारा सुरति में स्नान करता है। उसका, उसकी उक्त साधना के क्षमतानुसार चेतन और जड़ का बन्धन क्षीण होने लगता है और चेतन-शक्ति से सम्बन्ध स्थापित होते हुये चेतन रूपी आत्मा से सिद्धि और शक्ति प्राप्त होने लगती है परन्तु वह साधक पूर्णता को प्राप्त नहीं होता है। उसके बाद वह अविनाशी आत्मा (दिव्य-ज्योति) का दर्शन करता है, वहाँ भी दर्शन से उसकी क्षमतानुसार ही जड़-चेतन के बीच लगा बन्धन क्षीण होने लगता है अथवा कुछ-कुछ शान्ति और आनन्द की अनुभूति होने लगती है फिर भी साधक को पूर्णता की प्राप्ति नहीं होती है तब जिस गुरु से साधना सीखे रहते हैं उनके पास दर्शन हेतु, उपदेश हेतु गुरु जी के पास जाते हैं और बार-बार उसका अभ्यास करके समझने का प्रयत्न करते हैं, उससे भी जब समझदारी नहीं हो पाती है अर्थात् जड़ से विरक्ति और चेतन-आत्मामय नहीं हो पाता है, तब यदि उसकी श्रद्धा और लगन रहती है, तब कामिनी-कंचन रूपी जड़ समाज से विरक्त होकर गुरु की शरण में रहकर काफी लगन से काया-वास रूपी साधनाभ्यास करने लगते हैं परन्तु यदि सदा-सर्वदा के लिए ग्रहस्थ जीवन का त्याग नहीं किया और वापस लौटे तो पुनः उनकी वही गति होती है जो पहले थी, इतना ही नहीं बल्कि और भी बुरी गति होती है। यही साधक योग0भ्रष्ट कहलाते हैं। ये इतने खतरनाक होते हैं कि स्वयं तो पथ-भ्रष्ट हो ही जाते हैं, सिद्धों, साधकों और महात्माओं के प्रति समाज में अनास्था, विश्वास और संघर्ष के लिए रास्ता बना देते हैं। अतः आइये ज्ञानी के संगम की बात देखें –
ज्ञानियों अथवा मुक्त पुरुषों हेतु – अवतार रूप साकार प्रभु की भक्ति का मार्ग; निष्काम कर्म करने रूपी विधि और सकाम कर्म मना करने रूपी निषेध कर्म के रहस्यों की कथा (सत्संग द्वारा समझाना); और परमेश्वर का यथार्थ ज्ञान मार्ग – तीनों प्रसिद्धि प्राप्त मार्गों का एकीकरण जहाँ होता है। इस प्रकार एकीकृत रूप अद्वैत्तत्त्व से युक्त अवतारी पुरुष से शंका-समाधान रूपी स्नान करने से भ्रमपूर्ण संशयों की समाप्ति और परमब्रह्म परमेश्वर की प्राप्ति की जिज्ञासा और श्रद्धा की प्राप्ति होती है जिससे जिज्ञासु और श्रद्धालु के अन्दर परमेश्वर की प्राप्ति का भाव और ही प्रबल हो जाता है। यह स्थिति ठीक उसी प्रकार होती है जिस प्रकार स्नानार्थी संगम स्नान के बाद तुरन्त ही अक्षय-वट का दर्शन के लिए व्यग्रता के साथ ही भीड़-भाड़ में ही उनके स्थान पर पहुँच जाता है और दर्शन करके कुछ तुष्टि प्राप्त करता है; और साधक जब साधनाभ्यास द्वारा सुरति में स्नान कर लेता है, तब आत्मा रूपी चेतन-शक्ति के दर्शन हेतु लालायित होने लगता है। पुनः आइए जिज्ञासु और श्रद्धालु भाव के साथ परमेश्वर की प्राप्ति की तरफ चला जाय। जब जिज्ञासु श्रद्धा और पूर्ण समर्पण भाव द्वारा तत्त्वज्ञान के माध्यम से ज्ञान-दृष्टि अथवा अथवा तत्त्व दृष्टि से परमेश्वर का दर्शन प्राप्त करता है, तब उसका यही दर्शन स्नानार्थी के अक्षय-वट अथवा साधक के आत्मा के स्थान पर जिज्ञासु परमेश्वर का दर्शन करता है। जिस प्रकार कर्मकांडी भारद्वाज आश्रम जाकर यथार्थ उपदेश प्राप्त करते हुये एक मास का ‘कल्प वास’ लेकर महात्माओं के उपदेशों को सुनता और उसके अनुसार कर्म का अभ्यास करता है; उसी प्रकार साधक अपने गुरु के पास जाकर साधनाभ्यास करता है, परन्तु सिद्ध नहीं हो पाने पर गुरु जड़ जगत् से सम्बन्ध काटने और चेतन रूप आत्मा से सम्बन्ध स्थापित करने हेतु साधक को ‘काया वास’ कराते हैं; ठीक इसी प्रकार भारद्वाज के स्थान पर स्वयं परमेश्वर अपने परमधाम से अवतरित होकर किसी शरीर को ग्रहण कर स्वयं सद् गुरु बनकर उत्कट जिज्ञासु और श्रद्धालु के शरणागत भाव को स्वीकार कर अपने यथार्थ का ज्ञान देते हुये अपनी यथार्थ जानकारी और पहचान भी स्वयं ही कराकर ज्ञानी अथवा मुक्त पुरुषों को शरीर रहने तक यहाँ और शरीर छूटने पर अपने परमधाम में ‘सदा-निवास’ प्रदान करते हैं।
बन्धुयों ! अब तक तो हम लोग आज्ञा-चक्र के अन्तर्गत संगम वाले विषय के अन्तर्गत कर्मकांडी और योगी तथा ज्ञानियों के संगम का भी तुलनात्मक अध्यन इस बात को ध्यान में रखकर भ्रमपूर्ण जानकारियों के कारण समाज में जो नाना तरह का वर्ग संघर्ष छिड़ा हुआ है उस वर्ग संघर्ष के कारण रूप भ्रम एवं भ्रमपूर्ण जानकारियों को ही समाप्त कर उसके स्थान पर यथार्थ पूर्ण जानकारियों को बोधगम्य तरीके से रखा गया है। अब आइए हम लोग अपने मूल विषय पर चर्चा करें।
आज्ञा-चक्र वह है जहाँ से शरीर की एक सबसे प्रसिद्ध नाड़ी जिसका एकमात्र कार्य जीव को आत्मा से मिलाना, उसी सुषुम्ना नाड़ी की उत्पत्ति और पुनः लौटकर समाप्ति भी इसी चक्र में होती है। इस विषय पर सुषुम्ना नाड़ी और आज्ञा-चक्र की इतनी बड़ी मान्यता है कि साधना-मार्ग अथवा भोग मार्ग का कोई साधक इसको अपना माध्यम बनाए बगैर योग-साधना का अभ्यास और सिद्धि प्राप्त नहीं कर सकता।

ध्यान केन्द्र और दिव्य-दृष्टि अथवा तीसरी आँख 
ध्यान केंद्र – शंकर जी से लेकर वर्तमान कालिक जितने भी योगी-महात्मा, ऋषि-महर्षि आदि थे और हैं, चाहे वे योग-साधना करते हों या मुद्राएँ, प्रत्येक के अन्तर्गत ध्यान एक अत्यन्त आवश्यक योग की क्रिया है जिसके बिना सृष्टि का कोई साधक-सिद्ध, ऋषि-महर्षि, योगी, अथवा सन्त-महात्मा ही क्यों न हो आत्मा को देख ही नहीं सकते अथवा आत्मा का दर्शन या साक्षात्कार हो ही नहीं सकता है। दूसरे शब्दों में योग-साधना के अन्तर्गत ध्यान का वही स्थान है जो शरीर के अन्तर्गत ‘आँख’ का। जिस प्रकार शरीर या संसार को देखने के लिए सर्वप्रथम आँख का स्थान है उसी प्रकार आत्मा-ईश्वर-ब्रह्म को देखने और पहचानने के लिए ध्यान का स्थान है। ध्यान का केंद्र आज्ञा-चक्र ही होता है। यही स्थान त्रिकुटि-महल भी है।
योगी-साधकों के आदि प्रणेता श्री शंकर जी कहलाते हैं। योग-साधना की क्रियाओं अथवा मुद्राओं का सर्वप्रथम शोध शंकर जी ने ही किया था। ध्यान आदि मुद्राओं के सर्वप्रथम शोधकर्ता होने के कारण ही सोsहं के स्थान पर कुछ योगी-महात्मा शिवोsहं तथा मूलाधार स्थित मूल शिवलिंग और शम्भू भी हंस स्वरूप ही कहलाने लगे।
दिव्य-दृष्टि अथवा तीसरी आँख – दिव्य-दृष्टि वह दृष्टि होती है जिसके द्वारा दिव्य-ज्योति अथवा नूरे इलाही का दर्शन या दीदार किया जाता है। दिव्य-दृष्टि को ही ध्यान केंद्र भी कहा जाता है। शरीर के अन्तर्गत यह एक प्रकार की तीसरी आँख भी कहलाती है। इसी तीसरे नेत्र वाले होने के कारण शंकर जी का एक नाम त्रिनेत्र भी है। यह दृष्टि ही सामान्य मानव को सिद्ध-योगी, सन्त-महात्मा अथवा ऋषि-महर्षि बना देती है बशर्ते कि वह मानव इस तीसरी दृष्टि से देखने का भी बराबर अभ्यास करे। योग-साधना आदि क्रियाओं को सक्षम गुरु के निर्देशन के बिना नहीं करनी चाहिए अन्यथा विशेष गड़बड़ी की सम्भावना बनी रहती है।
-------- सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस





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